HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Chapter 8 भारतीय नारी Explain Solution

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HBSE Class 10 Naitik Siksha Chapter 8 भारतीय नारी / Bhartiya Nari Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 10th Book Solution.

भारतीय नारी Class 10 Naitik Siksha Chapter 8 Explain


जिस देश में किसी भी मंगल कार्य की पूर्णता नारी के बिना सम्भव नहीं, जहाँ की नारियों विश्व सभ्यता के शैशव काल में भी सार्वजनिक रूप से गूढ विषयों पर शास्त्रार्थ करती है तथा स्वयंवर की स्वतन्त्रता जिनको मानवीय गरिमा और पूर्णता प्रदान करती हो, उस देश के नारी स्वातन्त्र्य पर सन्देह करना, गौरवमयी परम्परा को कलंकित करने के दुस्साहस के अतिरिक्त कुछ नहीं है। भारतीय समाज में नारी का स्थान बहुत गौरवमय और महत्त्वपूर्ण है। भारतीय मनीषा ने उसे वैदिक काल में ही शक्तिरूप में स्वीकार कर लिया था। वैदिक युग से आधुनिक युग तक राष्ट्रीय जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जिसमें भारतीय नारी ने योगदान नहीं दिया हो। राजनीति के क्षेत्र में महारानी दुर्गावती, अहिल्याबाई. लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, डॉ. ऐनी बेसेण्ट (संस्कार से शुद्ध भारतीय) इन्दिरा गाँधी तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में गार्गी, मदालसा, मैत्रेयी, अश्वघोषा, लोपामुद्रा. विद्योत्तमा आदि के योगदान को कौन अस्वीकार कर सकता है? वर्तमान युग में भी भारत की नारी अपनी मेधा से विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित कर रही है।

यहाँ भारत की कुछ सन्नारियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है।

मैत्रेयी :

याज्ञवल्क्य ऋषि की पत्नी मैत्रेयी महान विदुषी थी। जब ऋषि ने वानप्रस्थ लेने का विचार किया तो अपनी पत्नी से मन्त्रणा की और कहा कि तुम आज्ञा दो तो मैं वानप्रस्थ लेने का विचार रखता हूँ। मेरे धनादि को तुम और कात्यायनी (दूसरी पत्नी) परस्पर बाँट लो। मैत्रेयी ने कहा कि ऐसा धन मुझे नहीं चाहिए, जिससे मैं अमर न हो सकूँ। मुझे तो वह मार्ग बताओ, जिससे अमृतपद प्राप्त हो । पत्नी का वैराग्य देखकर ऋषि याज्ञवल्क्य विस्मित हो गए। उन्होंने मैत्रेयी को अपने सम्मुख बिठाकर कल्याण मार्ग बताया। इसके उपरान्त महर्षि याज्ञवल्क्य उपासना-भक्ति के लिए वन में चले गए। बाद में मैत्रेयी ने परम्परा से प्राप्त ज्ञान व चिन्तन के बल पर बड़े-बड़े पण्डितों से शास्त्रार्थ किया। उन्होंने कई पण्डितों को ज्ञानचर्चा में परास्त कर अज्ञान के अन्धकार से बाहर निकाला और सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।

भगिनी निवेदिता :

भारत के मुक्ति आन्दोलन की महती प्रेरणा भगिनी निवेदिता का मूल नाम मारग्रेट नोबल था। वे आयरलैंड में जन्मी जरूर थीं लेकिन उनकी आत्मा विशुद्ध भारतीय थी। भारतीय संन्यासी स्वामी विवेकानन्द के आत्मज्ञान सम्बन्धी भाषण और दर्शन की सुन्दर व्याख्या सुनकर वे मन्त्रमुग्ध हो गईं। उनके अन्दर भारत को आत्मसात करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। भारत को जानने-समझने की यही जिज्ञासा, उन्हें यहाँ खींच लाई। वे स्वामी विवेकानन्द की शिष्या बनकर भारतीयों की सेवा के लिए समर्पित हो गई। स्वामी जी ने उन्हें अपनी ‘मानसकन्या निवेदिता’ कहा। अरविन्द घोष ने उन्हें ‘भगिनी निवेदिता’ तथा रवीन्द्रनाथ ने उन्हें ‘लोकमाता’ कहकर पुकारा। सन 1899 में कलकत्ता में प्लेग भयंकर महामारी के रूप में फैला। तब भगिनी निवेदिता ने स्वच्छता सम्बन्धी सारा काम अपने हाथ में ले लिया। उनकी प्रेरणा से अनेक युवक-युवतियाँ प्लेग पीड़ितों की सहायता के लिए घरों से बाहर आ गए। इसका एक सुपरिणाम यह निकला कि सेवा की दिव्य अनुभूति से छुआछूत की सतही भावना भी दूर हो गई।

सन 1906 में पूर्व बंगाल के अकाल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भगिनी निवेदिता ने पानी और कीचड़ में फँसे भूखे-प्यासे लोगों तक ज़रूरत की सामग्री पहुँचाने का कष्टसाध्य कार्य किया । उनका यह कार्य अन्य मिशनरी महिलाओं से भिन्न था। निवेदिता ने भारतीयों की सेवा का व्रत लिया था । निवेदिता के सेवा कार्यों के पीछे किसी मत के प्रचार का छद्म उद्देश्य नहीं था। वे भारतीय दर्शन से प्रभावित थीं तथा संन्यासिनियों-सा जीवन व्यतीत करती थीं ।

यद्यपि भगिनी निवेदिता का मुख्य कार्य सेवा करना था तथापि वे अरविन्द घोष व उनके क्रान्तिकारी साथियों के प्रति सहानुभूति रखती थीं। उनके निजी पुस्तकालय में क्रान्ति साहित्य का बड़ा भण्डार था, जो उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियों को सौंप दिया। वे महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। उनकी मान्यता थी, ‘भारतीय स्त्रियों का शर्मीलापन, नम्रता, पवित्रता उनके लिए गर्व की वस्तु होनी चाहिए, इसे पिछड़ापन कहना भूल है। आधुनिक शिक्षा अपनी परम्पराओं पर आधारित होनी चाहिए। यह शिक्षा पूर्व-पश्चिम के सभी उज्ज्वल पक्षों को मिलाकर पूर्ण होगी। यह विश्वबन्धुत्व का प्रसार करेगी और भारत को फिर से विश्वगुरु के पद पर आसीन करने में सक्षम होगी।’

भगिनी निवेदिता ने अपने जीवन के चौदह वर्ष भारत की सेवा में अर्पित किए। 13 अक्तूबर 1911 को उन्होंने इस संसार से प्रस्थान किया। दार्जीलिंग में उनकी समाधि पर लिखा हुआ है यहाँ चिर निद्रा में लीन है भगिनी निवेदिता, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारतभूमि के लिए अर्पित कर दिया।

सरोजिनी नायडू –

विद्वान पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय के घर 13 फरवरी 1879 को सरोजिनी नायडू का जन्म हैदराबाद में हुआ था भाषा और साहित्य का संस्कार उन्हें बचपन से ही मिला था। पिता चाहते थे कि सरोजिनी गणितज्ञ बने किन्तु उनकी प्रकृति काव्य के अनुकूल थी । ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होंने तेरह सौ पंक्तियों की एक लम्बी कविता ‘ए लेडी ऑफ दी लेक’ की रचना की। 12 वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान लेकर पास की। उनकी प्रतिभा को देखकर पिता ने उनको उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया लेकिन उन्होंने अपना सारा ध्यान चिन्तन और लेखन में लगा दिया। हैदराबाद के निज़ाम ने सरोजिनी की साहित्यिक रचनाओं से प्रभावित होकर उनके विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था कर दी। तब उन्होंने लन्दन के किंग्स कॉलेज में प्रवेश लिया और वे पढ़ाई के साथ-साथ साहित्य सृजन में व्यस्त हो गई। अंग्रेजी के प्रसिद्ध कला समीक्षक व साहित्यकार एडमण्ड शौए के परामर्श ने इनकी लेखनी को भारतीयता से ओत-प्रोत कर दिया। इस समय राष्ट्रीय जनमानस विदेशी दासता से मुक्ति के लिए छटपटा रहा था । सौन्दर्य की गायिका सरोजिनी, देशवासियों की पुकार की उपेक्षा नहीं कर सकी। उनकी लेखनी से नवजागरण का शंखनाद फूट पड़ा और उन्हें ‘भारत कोकिला’ की उपाधि से विभूषित किया गया।

18 दिसम्बर, 1917 को सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में देश की अठारह प्रमुख महिलाएँ महिला मताधिकार की माँग को लेकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चेम्सफॉर्ड से मिलीं। सन 1922 में महिला मताधिकार की बात मान ली गई। यह तत्कालीन विश्व की बहुत बड़ी घटना थी।

1919 में उन्होंने बम्बई में असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। वे कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनी थीं तथा स्वतन्त्रता के बाद देश की पहली राज्यपाल बनने का गौरव भी उन्हीं को प्राप्त हुआ। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के लगभग सभी नेताओं के साथ काम किया। 1917 से 1947 के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के माध्यम से स्वतन्त्रता की लगभग सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। 15 अगस्त 1947 भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम दिन था। इस दिन भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने रेडियो पर देशवासियों को भावपूर्ण बधाई दी तथा अन्य पराधीन दशों के लिए मुक्ति की कामना की ।

2 मार्च, 1949 को उनका निधन हो गया।

ऐसे विलक्षण व्यक्तित्वों से युक्त, कर्तव्य के प्रति समर्पित नारियों पर सम्पूर्ण नारी जाति को गर्व है। आने वाली पीढ़ियाँ उनके त्यागमय जीवन से सदैव प्रेरित होंगी, ऐसा विश्वास है।


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