HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Chapter 9 ईसा मसीह की शिक्षाएँ Explain Solution

Class 10 Hindi Naitik Siksha BSEH Solution for Chapter 9 ईसा मसीह की शिक्षाएँ Explain for Haryana board. CCL Chapter Provide Class 1th to 12th all Subjects Solution With Notes, Question Answer, Summary and Important Questions. Class 10 Hindi mcq, summary, Important Question Answer, Textual Question Answer, Word meaning, Vyakhya are available of नैतिक शिक्षा Book for HBSE.

Also Read – HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Solution

Also Read – HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Solution in Videos

HBSE Class 10 Naitik Siksha Chapter 9 ईसा मसीह की शिक्षाएँ / Isa Masih ki sikshayen Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 10th Book Solution.

ईसा मसीह की शिक्षाएँ Class 10 Naitik Siksha Chapter 9 Explain


विश्व में अनेक ऋषि-मुनियों, पीर पैगम्बरों, चिन्तकों व दार्शनिकों ने अपनी सोच व चिन्तन से न केवल विश्वबन्धुत्व की भावना को विकसित किया है अपितु सभ्य समाज के निर्माण में अपना योगदान भी दिया है। जिस प्रकार योगेश्वर कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म का उपदेश देकर हमें कृतार्थ किया है, उसी प्रकार संसार में एक अन्य ऐसी विभूति हुई हैं, जिन्होंने पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया। इस विभूति का नाम है- यीशु मसीह ।

ईसा ने अपना सारा जीवन गरीबों, वंचितों, निःशक्तों और अनाथों के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने अछूतोद्वार के लिए भी कार्य किए। एक बार किसी युवक ने ईसा से पूछा कि अच्छा जीवन प्राप्त करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए? ईसा ने कहा- अहिंसा धर्म का पालन करो अर्थात् किसी प्राणी की हत्या न करो। सदाचारी बनो, चोरी न करो, झूठी गवाही न दो, अपने माता-पिता का आदर करो, औरों को अपने समान प्यार करो तथा दूसरों के जीवन को सँवारने के लिए अपना जीवन होम कर दो।

ईसा ने विवाह को एक पवित्र बन्धन माना है। उन्होंने कहा कि जो अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह गलत है। यदि मनुष्य का मन शुद्ध होगा तो किसी प्रकार के नकारात्मक भाव नहीं आएँगे। मन की शुद्धता के बारे में ईसा ने लोगों से कहा, ‘तुम मेरी बातें सुनो और समझो। ऐसा कुछ नहीं है, जो बाहर से मनुष्य में प्रवेश करके उसे अशुद्ध करता है। व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, विद्वेष, छल-कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, झूठी निन्दा, अहंकार और धर्महीनता-ये सब बुराइयाँ मनुष्य के भीतर से निकलती हैं और उसको अशुद्ध कर देती हैं। अतः मन को शुद्ध रखना चाहिए ताकि बुरे विचार मन में प्रवेश ही न कर सके।

अपने शिष्यों को प्रेम का सन्देश देते हुए वे कहते हैं ‘अपने शत्रुओं से भी प्रेम करो। जो लोग तुम पर अत्याचार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो। इससे तुम परमपिता की सन्तान बन जाओगे। भाव यह है कि अपनी दृष्टि सकारात्मक रखो। सकारात्मक सोच, प्रेम और विश्वास के बल पर तुम अपने शत्रु को भी मित्र बना सकते हो। ईसा का कथन है कि सूर्य भले और बुरे दोनों प्रकार के व्यक्तियों पर समान रूप से प्रकाश फैलाता है, वह किसी से द्वेष नहीं रखता तो फिर तुम क्यों मन में मैल रखते हो? जब तुम शत्रुओं से प्रेमपूर्वक व्यवहार करोगे तो बड़े बनोगे। अतः शत्रुओं से भी प्रेम करो और पूर्ण बनो। यदि कोई अपराध करता है तो उसको डाँटो और यदि वह पश्चात्ताप करता है तो उसे क्षमा करो। यदि वह दिन में सात बार अपराध करता है और सातों बार पश्चात्तापपूर्वक क्षमा याचना करता है तो उसको क्षमा कर दो। यदि वह फिर भी पाप करता है तो उसे दण्डाधिकारियों को सौंप दो।

परोपकार हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। यदि तुम परोपकार हेतु भोज देते हो तो अपने चिर-परिचितों, मित्रों, सगे-सम्बन्धियों और धनी व्यक्तियों को निमन्त्रण मत दो बल्कि निर्धनों, वंचितों और निःशक्तों आदि को खाना परोसो ताकि वे अपनी भूख शान्त कर सकें। होता यह है कि धनी और परिचित व्यक्ति तो आपको खाना खिलाकर अपना उपकार उतार देते हैं। परन्तु गरीब व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकते। गरीबों पर किए गए उपकार को परमपिता अपने आप उतारेगा। अतः कुछ भी न माँगो, बदले में कोई चाह न रखो। तुम्हें जो कुछ देना हो, दे दो। वह तुम्हारे पास वापस आ जाएगा, लेकिन आज ही उसका विचार मत करो। देने की ताकत पैदा करो। दे दो और बस काम खत्म हो गया। यह बात जान लो कि सम्पूर्ण जीवन दानस्वरूप है। यदि नहीं दोगे तो प्रकृति तुम्हें देने के लिए बाध्य करेगी इसलिए स्वेच्छापूर्वक दो

शिष्य बनने की योग्यता बताते हुए ईसा का कथन है कि जो व्यक्ति मेरे पास शिष्य बनने के लिए आता है और यदि वह अपने माता-पिता, सन्तान, भाई-बहन और अपने जीवन के मोहबन्धन में बँधता है, तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता। यदि कोई अपने माता-पिता, भाई-बन्धु पुत्र या स्वयं के प्रति लगाव रखेगा तो वह सन्त बनने के लिए शिष्य होने की पात्रता पूरी नहीं कर सकेगा। शिष्य बनने की योग्यता को उन्होंने एक दृष्टान्त द्वारा बताया है- तुम में से ऐसा कौन होगा, जो मीनार बनवाना चाहे परन्तु पहले पैसे का हिसाब न लगाए और यह नहीं देखे कि उस मीनार को पूरा करने की पूँजी उसके पास है या नहीं? ऐसा न हो कि नींव डालने के बाद वह निर्माण कार्य को पूरा न कर सके और देखने वाले उसकी हँसी उड़ाएँ- “इस मनुष्य ने निर्माण कार्य प्रारम्भ तो किया किन्तु उसे पूरा नहीं कर सका।” यही बात शिष्य बनने की योग्यता पर लागू होती है। शिष्य बनने के लिए माता-पिता और परिवार को छोड़ना पड़ेगा।

ईसा ने मानव को जगत की ज्योति बताया है। उसका दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिए। जिस प्रकार दीपक को जलाकर उसको दीवार पर रखा जाता है ताकि वह सबको प्रकाशित कर सके। यदि उसको पलंग के नीचे रखा जाए तो उसका प्रकाश सीमित हो जाएगा और वह अधिक कुछ प्रकट करवाने में सहायक नहीं होगा। अतः दीपक को दीवार पर रखो ताकि वह सभी को प्रकाशित कर सके। हम अपने आस-पास के परिवेश को प्रकाशित कर सकें। यदि किसी के घर में अँधेरा है (समस्याएँ हैं तो हमारा कर्तव्य है, वहाँ तक उजाला (समाधान) ले जाएँ।

जो लोग भविष्य की चिन्ता करते हुए तनाव में तो रहते हैं परन्तु कोई काम-धन्धा नहीं करते, उनके लिए यीशु का यही सन्देश है कल की चिन्ता मत करो क्योंकि कल अपनी चिन्ता भी साथ लेकर आएगा। आज की ही चिन्ता करो।

ईसा मसीह ने शान्ति, प्रेम और पवित्रता से रहने का सन्देश दिया है —

  • वह धन्य है, जिसका हृदय पवित्र है और उन्हीं का प्रभु से साक्षात्कार होगा।
  • शान्ति चाहने वाले बनो क्योंकि वे परमात्मा के बालक हैं।

इस प्रकार ईसा ने पवित्रता, धन की निःसारता, विनम्रता, दायित्व, शिष्य की योग्यता, शिष्टाचार आदि अनेकानेक विषयों पर उपदेश दिया है, जिन्हें कोई भी मतावलम्बी अपनाकर अपने आचरण को श्रेष्ठ बना सकता है।


Leave a Comment

error: