HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 17 हेमचंद्र विक्रमादित्य Explain Solution

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हेमचंद्र विक्रमादित्य Class 12 Naitik Siksha Chapter 17 Explain


प्रकृति का पालना कभी-कभी धरती पर ऐसा अनुपम उपहार छोड़ जाता है, जिसे आने वाली पीढ़ियों तक याद किया जाता है। एक ऐसा ही अमूल्य हीरा हेमचन्द्र विक्रमादित्य जो आज भले ही इस पंच भौतिक देह से हमारे बीच विद्यमान नहीं है किन्तु यशरूपी शरीर से आज भी विद्यमान है और रहेगा। हेमचन्द्र का उपनाम हेमू था । वह इसी नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है।

अपने जीवन काल में छोटे-बड़े 22 युद्धों के विजेता रहे रेवाड़ी के हेमचन्द्र विक्रमादित्य (हेमू) की पानीपत के द्वितीय युद्ध के दौरान आँखों में तीर लगने से यदि मृत्यु नहीं हुई होती तो इस लड़ाई में अकबर को चारों खाने चित्त होना पड़ता तथा हेमू की इस जीत से भारत के इतिहास में एक नया मोड़ आता। इन तथ्यों की इतिहास भी पुष्टि करता है।

रायपूरणदास के पुत्र हेमचन्द्र विक्रमादित्य (हेमू) का जन्म अश्विन शुक्ल दशमी, विक्रमी सम्वत् 1556 में अलवर के समीप माछेरी गाँव में एक समृद्ध परिवार में हुआ था। भारतीय जनमानस के हृदय में हेमू का नाम उनकी बहादुरी, देशभक्ति, दूरदर्शिता एवं प्रशासनिक योग्यता के कारण सदैव गौरव का प्रतीक रहा है।

हेमू का परिवार कुछ समय बाद रेवाड़ी के कुतुबपुर में आकर बस गया, जहाँ उनकी पैतृक हवेली आज मी सुरक्षित है तब रेवाड़ी एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था तथा ईरान और इराक के व्यापारियों के लिए यह प्रमुख मण्डी थी शेरशाह सूरी का जन्म नारनौल में होने के कारण हेमू परिवार की उनसे घनिष्ठता थी। हेमू ने यहाँ बाद बनाने वाले प्रमुख तत्त्व ‘शोरे का व्यापार शुरू कर भारी ख्याति प्राप्त की तथा सूरी की बारूदी आवश्यकताओं को पूरा करने में अहम भूमिका निभायी। शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद उनके पुत्र इस्लामशाह (सलीम खी) सूरी ने गद्दी संभाली। उसने अपनी सेना में राजपूतों व जाटों की भर्ती की। ऐसे में हेमू की विलक्षण प्रतिभा को पहचान कर इस्लामशाह ने उन्हें महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक कार्य सौंपने का निर्णय किया। तत्पश्चात् उनके पदों में उत्तरोत्तर वृद्धि की गई। हेमू ने अपनी कार्यशैली व प्रतिमा से इस्लामशाह को इतना प्रभावित किया कि अनेक अफगान सरदारों की अनिच्छा के बावजूद इस्लाम शाह ने हेमू को 6000 सवारों की मुख्तियारी दी और अमीर का खिताब दिया। एक ओर जहाँ हेमू शत्रुओं को नाकों चने चबवा रहा था, वहीं दूसरी ओर वर्ष 1562-63 में इस्लामशाह ने अपने शत्रुओं व बागियों को सरहिन्द तक खदेड़ कर पंजाब का सैनिक व प्रशासनिक दायित्व पूरी तरह से हेमू को सौंप दिया तथा स्वयं ग्वालियर चला गया। 30 अक्टूबर, 1563 को उसकी मौत हो गई।

इस्लामशाह सूरी की मौत के बाद सूरी सल्तनत में भारी उथल-पुथल मच गई तथा इस्लामशाह के बेटे की हत्या करके मुबारिक खाँ शाही तख्त पर बैठ गया। उसने मुहम्मद आदिलशाह की उपाधि धारण कर ली। आदिलशाह के बजीरे आजम होने के कारण हेमू ने इब्राहिम खाँ मुहम्मद खाँ ताज करांनी, फखरवान नूरानी आदि अनेक अफगान विद्रोहियों की बगावत को कुचल कर आदिल के राज्य की सुरक्षा की। आगे चलकर हेमू के नेतृत्व में अफगान शाही सेना ने इब्राहिम खाँ को लगातार दो युद्धों में पराजित किया। पहले कालपी में और फिर खानुआ में। इसके बाद हेमू को आदिलशाह का बंगाल जाने का आदेश प्राप्त हुआ, जहाँ उन्होंने विद्रोही मुहम्मद शाह की सेना का सफाया किया। इस बीच हेमू की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर हुमायूँ की मुगल सेना ने दिल्ली व आगरा पर आक्रमण कर दिया और अधिकार जमा लिया।

यह समाचार पाते ही सन् 1556 में हेमू ने युद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दी तथा अकबर की सेना को आगरा में करारी शिकस्त दी। इसके बाद हेमू ने दिल्ली की ओर कूच किया। आदिलशाह के लिए हेमू द्वारा मुगल सेना से लड़ा गया यह उनका 22 वाँ युद्ध था। हेमू ने तुगलकाबाद में अपना डेरा जमाया, जहाँ मुगल सेना के साथ। उनके नेतृत्व में युद्ध हुआ।

हेमू बड़े साहस एवं वीरता के साथ लड़ा और विरोधियों के छक्के छुड़ा दिए। इस युद्ध में हेमू की जीत हुई तथा उसकी लोकप्रियता दूर-दूर तक फैल गई। आखिरकार आदिलशाह ने हेमू को दिल्ली का राजसिंहासन सौंप दिया तथा उन्हें विक्रमादित्य की उपाधि से भी नवाजा। हेमू ने सम्राट् हेमचन्द्र विक्रमादित्य के रूप में भारतीय राजनीति का नया सूत्रपात किया।

5 नवम्बर, 1556 को हेमू को जब यह समाचार मिला कि मुगल सेना का अग्रिम दस्ता पानीपत के मैदान में पहुँच चुका है तो हेमू भी अपनी पूरी सेना के साथ पानीपत के मैदान में पहुँचा और उसने इस दस्ते को तीन और से घेरकर जबरदस्त आक्रमण किया। हेमू अपने हवाई नामक हाथी पर खड़ा होकर शत्रु को ललकारता हुआ अपने सैनिकों का मनोबल ऊँचा कर रहा था। हेमू की सेना ने मुगल सेना की अपने पराक्रम और शौर्य से ऐसी हालत कर दी कि वे मैदान छोड़ने की तैयारी करने लगे थे। वस्तुतः नियति को कुछ और ही मंजूर था और जीती हुई बाजी हार में बदल गई क्योंकि इसी बीच हेगू की बांयी आँख में एक तीर आकर लगा और उसने युद्ध की दशा और दिशा ही बदल दी। यह तीर उनके सिर के आरपार हो गया। इसके बाद भी हेमू अपनी सेना को प्रोत्सहित करता रहा। किन्तु इस तीर ने विजय को पराजय में बदल दिया। बाद में हेमू को अचेत अवस्था में मुगल सेना ने बन्दी बना लिया और बैरम खाँ ने हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया।

हेमचन्द्र विक्रमादित्य को बेशक इतिहास के पन्नों पर वह सम्मानजनक स्थान नहीं मिला, जिस पर उसका हक था। इसके बावजूद उसकी वीरता का लोहा अनेक शूरवीरों ने स्वीकार किया है। हेमू ने अपने साहस, शौर्य और पराक्रम से न केवल भारतभू को अपितु पूरी मानव जाति को गौरवान्वित किया है और ‘चन्दन है इस देश की माटी’ उक्ति को भी चरितार्थ किया है।


 

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