HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 2 भक्तियोग – Explain Solution

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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 2 भक्तियोग / Bhaktiyog Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.

भक्तियोग Class 12 Naitik Siksha Chapter 2 Explain


गीता में ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों का अद्भुत संगम है। गीता इहलोक और परलोक दोनों को सुधारने का एवं जीवन जीने का रास्ता बतलाती है। ज्ञान, कर्म तथा उपासना का गहरा सम्बन्ध है। ज्ञान-पूर्वक श्रेष्ठ कर्म करते हुए भगवद् भक्ति की ओर बढ़ते जाना भारतीय जीवन-दर्शन है। यह मनुष्य को ही वरदान मिला है कि वह अपने को जानकर परमात्मा और मुक्ति को प्राप्त करे। संसार में वे लोग बड़े भाग्यशाली होते हैं, जो सच्चे अर्थों में धर्म, भक्ति, साधना और अध्यात्म-मार्ग के पथिक बनते हैं। इसी बात का कठोपनिषद् में सुन्दर शब्दों में चित्रण किया गया है

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् । 
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ।।

अर्थात् परमात्मा का आश्रय श्रेष्ठ है, उसी का सहारा परम उत्तम है और उसी के सहारे को प्राप्त करके मनुष्य ब्रह्मलोक में महत्त्व प्राप्त कर लेता है।

गीता में भक्ति योग का सीधा सरल एवं व्यावहारिक दैनिक जीवनोपयोगी मार्ग बताया गया है। जब हम भोजन करते हैं, तब हमें नित्य प्रभु का धन्यवाद एवं प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। वही हमारा सच्चा गुरु है, उस की सच्ची भक्ति करना ही भक्ति योग है। गीता सच्चे भक्त की पहचान बताती है —

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । 
निर्ममो निरहंकारः, समदुःखसुखः क्षमी ।।

अर्थात् जो व्यक्ति किसी प्राणी से द्वेष नहीं करता है, जो सबका मित्र है और सबसे प्रेम करता है, जो अहंकार और मोहमाया आदि से रहित है, जो सबके प्रति दया, करुणा व प्रेम रखता है, जो सुख-दुःख में समभाव से रहता है। क्षमाशील व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवान् का भक्त है।

जो मनुष्य भगवान् पर पूर्ण आस्था न रखकर सांसारिक सम्पदाओं से ही सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं. उनके विषय में कवि भर्तृहरि जी कहते हैं

केचिद् वदन्ति धनहीन जनो जघन्यः, 
केचिद् वदन्ति बलहीन जनो जघन्यः । 
व्यासो वदत्यखिलशास्त्रविदां वरेण्यः, 
नारायणस्मरणहीनजनो जघन्यः ।।

अर्थात् कुछ कहते हैं कि धन से रहित मनुष्य निन्दनीय है, कुछ कहते हैं कि बल से हीन मनुष्य निन्दा के योग्य है, किन्तु कविवर वेदव्यास जी कहते हैं कि परमात्मा को याद न करने वाला मनुष्य ही सबसे अधिक निन्दनीय होता है। कहने का आशय यह है कि मनुष्य के जीवन में परमात्मा की भक्ति सर्वोपरि है भक्ति भाव को श्रेष्ठ बताते हुए रहीम भी कहते हैं

अमरबेलि बिन मूल की प्रतिपालत है ताहि । 
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि खोजत फिरिए काहि ।।

अर्थात् जो परमात्मा बिना जड़ की अमर बेल को पालता है, ऐसे प्रभु को छोड़कर तुम किसको खोजते हो? उस प्रभु की भक्ति करो, उसका सहारा पकड़ो अन्य किसी का सहारा पकड़ने की आवश्यकता नहीं है।

आज संसार परमात्मा की भक्ति के अनेक तरीके अपना रहा है किन्तु अन्तःकरण तक भक्ति नहीं पहुँच पा रही है। दिखावटी भक्ति से भावशुद्धि तथा हृदय परिवर्तन नहीं हो पा रहा है। इसी कारण जीव एवं जगत् में वास्तविक सुधार, उत्थान निर्माण आदि नजर नहीं आ रहे हैं। मनुष्य दुर्व्यसनों, दुर्गुणों, बुराइयों और अहंका-भरे मन से भक्ति कर रहा है, जिसका फल सुखदायक नहीं होता है। इसके विपरीत भक्ति जब ज्ञान और वैराग्य युक्त मन से की जाती है, तभी फलवती तथा आनन्ददायक होती है। हम बातें तो भगवद भक्ति की करते हैं और प्यार धन-सम्पदा एवं संसार से करते हैं। मनुष्य दूसरों को धोखा दे सकता है, स्वयं को धोखे में रख सकता है, परन्तु भगवान् को धोखा नहीं दे सकता। आज हम परमात्मा को शब्दों से ठगना चाहते हैं। सच्चाई यह है कि ऐसे लोग अपने पाप के बोझ को ही बढ़ा रहे हैं, जिनकी भक्ति में सच्चाई, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता होती है, उनके जीवन और कर्म सुगन्धित हो जाते हैं। परमात्मा पर आस्था रखने वाला मनुष्य कभी दुःखी नहीं हो सकता। प्रभु कभी किसी का बुरा नहीं करता। ईश्वर जो कुछ करता है वह अच्छा ही करता है। इस बात को एक कथानक से समझिये

एक बार राजा और मन्त्री किसी भयानक वन में शिकार करने के लिए चले गए। वन में शिकार पर वार करते समय राजा की अंगुली कट गई। राजा ने मन्त्री को बताया कि हमारी एक अंगुली शस्त्र प्रहार से कट गई। मन्त्री ने उत्तर दिया, ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है। राजा को यह सुनकर बहुत बुरा लगा, कहा हमारी अंगुली कट गई, हमें कष्ट हो रहा है, आप कह रहे हैं कि अच्छा ही हुआ। राजा ने मन्त्री को तुरन्त बर्खास्त कर दिया ।

कुछ दिनों बाद राजा शिकार करते-करते दूसरे राज्य की सीमा में पहुँचा। वहाँ के राजा को एक स्वस्थ पुरुष की बलि देनी थी, अतः राजा के दूत ऐसे व्यक्ति की ही खोज कर रहे थे। दूतों ने राजा को पकड़ लिया। पकड़कर वे अपने राजा के पास ले गये। वहाँ के पण्डितों ने जब राजा को देखा तो उन्होंने एक अंगुली कटी पायी। पण्डितों ने राजा को कहा – इस मनुष्य की बलि नहीं दी जा सकती, क्योंकि इसकी एक अंगुली कटी हुई है । । इस कारण राजा वहाँ से छूट गया। अब राजा अपने राज्य की ओर चल पड़ा, मार्ग में राजा सोचता रहा कि यदि आज अंगुली न कटी होती तो मेरी बलि दे दी जाती। मन्त्री ने सच ही कहा था कि ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है। राजा ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ अपने राजमहल में पहुँचा। राजा ने महल में पहुँचते ही मन्त्री को बुलवाया। सन्देश मिलने पर मन्त्री डरते-डरते राजमहल पहुँचा वह सोच रहा था कि न जाने राजा कौन-सा दण्ड देंगे। परिस्थिति इसके विपरीत मिली। राजा ने मन्त्री से कहा कि आपका कहना ठीक था कि ईश्वर जो करता है, वह अच्छा ही करता है। ऐसा कहकर राजा ने आप-बीती घटना बताई। लेकिन राजा के मन में एक जिज्ञासा थी, उसने मन्त्री से पूछा कि आप एक बात बताएँ- जब मैंने आपको मन्त्री पद से हटा दिया तो ईश्वर ने क्या अच्छा किया ? मन्त्री ने उत्तर दिया- महाराज! यदि आप मुझे न निकालते तो मेरे प्राणों की रक्षा नहीं हो पाती। राजा ने पूछा वह कैसे ? मन्त्री बोला, आपके न निकालने पर मैं शिकार के लिए आपके साथ जाता। आपको तो पण्डितों ने अंग-भंग वाला कह कर छोड़ दिया। लेकिन मैं तो अंग-भंग वाला नहीं था। मेरी बलि अवश्य दी जाती। ईश्वर ने मुझे मन्त्री पद से हटवाकर मेरी प्राण रक्षा की। राजा मन्त्री की बात सुनकर बहुत खुश हुआ और उसे पुनः मन्त्री पद पर रख लिया।

उपर्युक्त कथानक से हमें शिक्षा मिलती है कि ईश्वर पर पूर्ण विश्वास करके, सच्चे मन से भक्ति करके मनुष्य अपने जीवन में परम आनन्द को पा लेता है तथा दुःखो से छुटकारे के साथ-साथ शान्ति को प्राप्त करता है।

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