HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 3 सूक्ति सौरभ – Explain Solution

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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 3 सूक्ति सौरभ / Sukti saurabh Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.

सूक्ति सौरभ Class 12 Naitik Siksha Chapter 3 Explain


सूक्ति का सामान्य अर्थ है, अच्छी उक्ति अर्थात् वे उक्तियाँ जो मनुष्य को जीवन में अच्छा बनने या अच्छा करने के लिए प्रेरित करें। सूक्तियाँ साहित्य का उत्कृष्ट रूप हैं, चाहे वे किसी भी भाषा की हों या फिर किसी भी धर्म की हों। साररूप में सूक्तियों की प्रतिष्ठा चिरकाल से चली आ रही है। शताब्दियों से चली आ रही, मानव अनुभव तथा गम्भीर चिन्तन के सूत्र रूप में, ये सूक्तियाँ मानव जीवन को अपनी अमृतमयी वाणी से प्रेरित कर उनकी जीवन दृष्टि को निर्मल कर देती हैं। सूक्तियाँ गागर में सागर भर देती हैं। जिनका दिग्दर्शन आगे दी जा रही सूक्तियों से सहज में हो जाता है।

1. मात्र तिष्ठः पराङ्मनाः । अथर्व0 8.1.9

भाव – हे मनुष्य! इस संसार में कर्म से विमुख होकर मत रहो हे मानव! उदार बनकर सम्मान के साथ जीवन यापन करो ।

2. सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे । यजु0 34/55

भाव – मानव शरीर में सात ऋषि विद्यमान हैं अर्थात् हमारा शरीर एक यज्ञशाला है। यह ऋषियों का आश्रम है। हम अपनी आँखों से अच्छा देखें, कानों से अच्छा सुनें, नासिका से ओ३म् का जप करें, मुख से अभद्र वचन न बोलें। मन से शिवसंकल्प करें, बुद्धि से दृढनिश्चय करें। इस प्रकार हम इसे ऋषियों का आश्रम बनाएँ । अभद्र दर्शन से, बुरा सुनने से, विषय वासनाओं की गन्ध लेने से अण्डा, माँस, शराब आदि के सेवन से यह शरीर नष्ट हो जाएगा।

3. ऋषिः स यो मनुर्हितः । ऋ0 10/26/5

भाव – मनुष्यों के हितकारी को ऋषि कहते हैं अर्थात् ऋषि कौन हैं? किसी ने कहा मन्त्रद्रष्टा को ऋषि कहते हैं, किसी ने कहा तत्त्व द्रष्टा को ऋषि कहते है परन्तु वेद ने कहा- ऋषि वह जो मानव कल्याण के लिए शुभ चिन्तन करे

4. अप्रतीतो जयति सं धनानि । ऋ० 4/50/9

भाव – पीछे पग न हटाने वाला ही धनों को जीतता है अर्थात् जो मनुष्य संकल्प के धनी हैं, वे जीवन में आगे बढ़कर पीछे नहीं हटते। ऐसे मनुष्य ही ऐश्वर्यवान् होते हैं। जिनमें उद्योग करने की शक्ति होती है, धैर्य और उत्साह होता है, सारे सौभाग्य व ऐश्वर्य उनके चरणों में लोटते हैं।

5. मुसीबतें टूट पड़े, हाल बेहाल हो जाए, तो भी जो लोग निश्चय से नहीं डिगते और धीरज रखकर चलते हैं, वे ही सच्चे धैर्यशाली हैं  (कुरान शरीफ)

6. अकर्त्तव्यं न कर्त्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि ।
कर्त्तव्यमेव कर्त्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि ।।

भाव – जो कार्य करने योग्य नहीं है, उसे प्राणों का संकट होने पर भी नहीं करना चाहिए तथा जो करने योग्य है उसे प्राण देकर भी करना चाहिए। महात्मा बुद्ध ने भी कहा है कि- जो कर्त्तव्य को छोड़कर अकर्त्तव्य करते हैं उनका चरित्र मलिन से मलिनतर हो जाता है। अतः हमें अपने जीवन में करने योग्य कार्यों को अवश्य करना चाहिए।

7. कृते च प्रतिकर्त्तव्यमेष धर्मः सनातनः ।

भाव – जो उपकार करे उसका प्रत्युपकार अवश्य करना चाहिए, यही सनातन व पुरातन धर्म है अर्थात् उपकार मानव जीवन में श्रेष्ठ कर्म है। ईश्वर का नाम लेना, नीति धर्मानुसार चलना, सबसे प्रेम करना, सभी के लिए हित चिन्तन करना, सभी की सहायता करना इसे ही परमार्थ कहा जाता है, और ऐसे कार्य करने वालों का कभी अपकार नहीं करना चाहिए।

8. मातृदेवो भव पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव ।

भाव – हमारे लिए माता देवतुल्य है। पिता देवतुल्य है आचार्य देवतुल्य है। अतिथि देवतुल्य है। ऐसा मानना चाहिए। तैत्तिरीय उपनिषद्

9. कासा हि नापदां हेतुरति लोभान्धबुद्धिता — कथासरित्सागर

भाव – अधिक लोभ से बुद्धि का अन्धा हो जाना, किन मुसीबतों का कारण नहीं है। भाव यह है कि लोभ सभी प्रकार की विपत्तियों का कारण है अर्थात् लोभ से मानव नीच कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। लोभ सभी पाप कर्मों की जड़ है। लोभ के कारण मानव तरह-तरह के अनर्थ कर लेता है। अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को लोभ त्याग देना चाहिए ।

10. सत्य, प्रेम तथा अच्छाई के मार्ग की बाधाओं को पार करने का सामर्थ्य आध्यात्मिकता ही प्रदान कर सकती है। (डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन्)

11. योषितो नावमन्येत । विष्णुपुराण 3/12/30

भाव – नारियों का अपमान न करें अर्थात् नारी जगत् निर्मात्री है, इसके बिना सृष्टि की रचना अकल्पनीय है। इसलिए शास्त्रों में इसे देवी माना गया है।

12. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।

भाव – जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं अर्थात् घर में नारियों के प्रसन्न रहने पर घर के सभी सदस्य भी प्रसन्न रहते हैं। इसके अभाव में सब कार्य निष्फल हो जाते हैं।

13. करें नियम से कर्म सब, धृति धर्म अनुसार, 
वेश स्वच्छ सुसभ्य हो, यही है शिष्टाचार । भक्तिप्रकाश’ स्वामी सत्यानन्द

14. पावं चजन्ति सन्तो नापि धम्मं । महासूत्र सोमजातक

भाव – सन्त जन प्राणों का त्याग कर देते हैं, किन्तु धर्म का नहीं

15. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । रामायण

भाव – माता और मातृ-भूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं अर्थात् माता असह्य कष्टों को सहन कर मानव जीवन का सृजन करती है। उसी तरह मातृभूमि तरह-तरह के श्रेष्ठ भोग्य पदार्थ देकर मानव जीवन को सार्थकता प्रदान करती है। इसलिए श्री रामचन्द्र जी रामायण में माता और मातृभूमि को स्वर्ग से भी महान् बताते हैं।

16. विवेक भ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः । भर्तृहरि नीतिशतक 10

भाव – विवेक से रहित मनुष्यों का सैकड़ों प्रकार से पतन होता है अर्थात् मनुष्य को जीवन पथ में सहसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए। उसे सभी कार्य विवेक से करने चाहिए क्योंकि विवेक रहित मनुष्य विपत्तियों में पड़कर जीवन को नष्ट कर लेता हैं।

17. ‘बिनु सत्संग विवेक न होई ।’ रामचरितमानस

18. जैसे शीतल सलिल से, शुचि शीतल हो अंग । 
शुचि शीतल मन को करें, ऐसे सन्त सुसंग ।। भक्ति प्रकाश, स्वामी सत्यानन्द

19. स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । भगवद्गीता 18/45

भाव – अपने-अपने उचित कर्म में लगा हुआ मानव सिद्धि को प्राप्त कर लेता है अर्थात् मानव के लिए सभी कर्म श्रेष्ठ हैं। कर्म कभी छोटा या बड़ा नहीं होता। यथास्थिति वर्तमान में निष्ठापूर्वक अपने काम को करते रहना चाहिए क्योंकि शास्त्रविहित कर्म करने से मानव को सफलता प्राप्त होती है।

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