HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 8 अहिंसा के साधक महात्मा बुद्ध Explain Solution

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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 8 अहिंसा के साधक महात्मा बुद्ध / ahinsa ke sadhak mahatma buddh Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.

अहिंसा के साधक महात्मा बुद्ध Class 12 Naitik Siksha Chapter 8 Explain


महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ का जन्म 562 ई0 पूर्व नेपाल की तराई में स्थित कपिलवस्तु के निकट ‘लुम्बिनी’ नामक स्थान पर हुआ। इस स्थान पर बाद में सम्राट अशोक ने एक स्तम्भ स्थापित किया था। जो आज भी विद्यमान है। शुद्धोधन शाक्य कुल में उत्पन्न एक बहुत बड़े राजा थे। सुख-सुविधाओं और भोग-विलासों की सारी आवश्यक वस्तुएँ उनके यहाँ उपलब्ध थी। दास-दासियों और नौकर-चाकरों की कोई कमी न थी।

बालक सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उसकी माता महामाया का देहान्त हो गया और उसका पालन-पोषण उसकी विमाता, शुद्धोधन की दूसरी पत्नी महाप्रजावती गौतमी ने किया। चूँकि बालक का पालन-पोषण गौतमी ने किया था, इसी कारण ये गौतम कहलाए।

सिद्धार्थ बचपन से बड़े होनहार एवं गम्भीर प्रकृति के थे। उन में सामान्य बालको जैसी चंचलता न थी। थोड़े ही दिनों में उन्होंने बहुत विद्या सीख ली थी और खेल-कूद से दूर रहकर एकान्त में बैठे कुछ सोचते रहते थे। करुणा के भाव उनमें जन्म से जागृत थे। देवदत्त उनका चचेरा भाई था। एक बार उसने तीर से एक हंस को मार गिराया। सिद्धार्थ ने उसकी चिकित्सा कर उस हंस की जान बचाई। हंस के लिए दोनों में झगड़ा हो गया। देवदत्त बोला- हंस को मैंने तीर से गिराया है, अतः हंस मेरा है। सिद्धार्थ ने कहा- हंस तड़प रहा था, इसे मैंने बचाया है, अतः हंस मेरा है। अन्त में हंस सिद्धार्थ को ही मिला, क्योंकि बचाने वाला मारने वाले से बेहतर होता है। सिद्धार्थ ने हंस की सेवा की और जब वह स्वस्थ हो गया, तो उसे मुक्त कर दिया।

सिद्धार्थ का पालन-पोषण राजसी वैभव के साथ हुआ। पिता शुद्धोधन ने सुख के सभी साधन उसके लिए जुटा रखे थे, लेकिन सिद्धार्थ का मन सदैव उचाट रहता था। अपने पुत्र की यह दशा देखकर राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ का विवाह शाक्य कुल की कन्या यशोधरा से कर दिया। विवाह के समय सिद्धार्थ 16 वर्ष के थे, पर सिद्धार्थ का मन सुखी न था। ये चिन्तनशील प्रकृति के थे। एक न एक उधेड़-बुन उन्हें सदा लगी रहती थी। एक दिन उन्होंने एक बूढ़े को देखा तो सोच में पड़ गए कि एक दिन मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा। एक रोगी को देखकर सोचने लगे कि यह शरीर रोगों का घर है मैं भी सदा नीरोग नहीं रह सकता। उन्होंने एक अर्थी को देखा तो समझ गए कि यह जीवन सदा नहीं रहने का एक दिन मुझे भी मरना है। यह सब सोचते-सोचते उनकी युवावस्था का मद चूर हो गया।

एक सन्न्यासी का खिला हुआ चेहरा देखकर सिद्धार्थ पर घर बार छोड़ने की धुन सवार हो गई। रोग, बुढ़ापे और मरण के दुखों से छुटकारे तथा शाश्वत शान्ति की खोज के लिए उन दिनों यही एक राह मानी जाती थी। विवाह के तेरह वर्ष बाद पुत्र हुआ। घर में बहुत खुशियाँ मनाई गयीं। उत्सव मनाए गए, लेकिन सिद्धार्थ को यह खटका सदा लगा रहता था कि इस सुख का क्या ठिकाना, आज है कल नहीं होगा। इसीलिए वह ऐसे सुख की खोज में थे जो सदा एकसा बना रहे। इसी शाश्वत सुख की खोज में एक रात वे अपनी पत्नी और पुत्र को सोया हुआ छोड़कर महल से निकल गए। छः वर्षों की कठोर तपस्या के बाद सिद्धार्थ की साधना सफल हुई और सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ हो गए। जहाँ पर उन्हें बोध हुआ था। वह जगह आज बोध गया (बिहार) के नाम से प्रसिद्ध है तथा विश्व की अमूल्य धरोहर के रूप में विख्यात है। जिस पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें सत्य का बोध हुआ था, वह बोधिवृक्ष के नाम से प्रसिद्ध आज भी बोधगया में स्थित है।

बोध मिलने पर बुद्ध के मन में विवाद छिड़ गया कि जो बोध मिला है। वह उसे अपने तक ही सीमित रखें या संसार को समझाएँ ? कौन समझेगा ? सब हँसी उडाएँगे। पर धीरे-धीरे संशय हट गया। सोचा संसार में एक-तिहाई लोग ऐसे है जो ज्ञान से लाभ उठा सकते हैं, परन्तु प्रचार के बिना अज्ञानी ही रह जाएँगे। फिर सवाल उठा कि पहले किसको बतलाएँ ? सिद्धार्थ काशी के पास ऋषिपतन मृगदाव पहुँचे, जिसे आज कल सारनाथ के नाम से जाना जाता है। ऋषिपतन पहुँचने पर बुद्ध को अपने वे पाँच शिष्य मिले जो उन्हें तपस्या-भ्रष्ट समझकर पहले छोड़ आए थे। बुद्ध ने इन्हीं पाँचों को सबसे पहले उपदेश दिया। इसको धम्म चक्क पवत्तन अर्थात् धर्मरूपी पहिए को चलाना कहते हैं। बुद्ध ने इन ब्राह्मणों को बताया कि जीवन में एक मार्ग अत्यन्त विलास का है और दूसरा अत्यन्त तप का है। एक तीसरा मार्ग भी है जो न अत्यन्त विलास का है और न अत्यन्त तप का, बल्कि दोनों के बीच का है। वह तथागत का देखा हुआ है उसे सुनों, उसे गुनो। बुद्ध का बताया हुआ यह रास्ता मध्यम मार्ग अर्थात् बीच का रास्ता कहलाता है। बुद्ध ने अष्ट मार्ग का उपदेश दिया।

संक्षेप में अष्टमार्ग की आठ आदर्श बातें इस प्रकार हैं —

  1. सम्यक दृष्टि अर्थात् सत्य व असत्य की पहचान की दृष्टि ।
  2. सम्यक संकल्प अर्थात् बुराई को त्यागने का पवित्र संकल्प।
  3. सम्यक वचन अर्थात् मृदु वाणी बोलना तथा झूठ, निन्दा व अप्रिय वचन का परित्याग
  4. सम्यक कर्म अर्थात् मनुष्य का कर्म अहिंसा, इन्द्रिय संयम और दयाभाव पर आधारित हो।
  5. सम्यक आजीविका अर्थात् जीवन यापन के लिए उचित एवं पवित्र साधनों का उपयोग।
  6. सम्यक प्रयत्न अर्थात् शारीरिक एवं मानसिक इच्छाओं को त्यागने का प्रयत्न ।
  7. सम्यक स्मृति अर्थात् मनुष्य को सदैव ध्यान रखना चाहिए कि उसका शरीर भी नश्वर है।
    8.सम्यक समाधि अर्थात् शाश्वत शान्ति के लिए चिन्तन की समाधि

महात्मा बुद्ध का कथन था कि मनुष्य इस अष्टमार्ग का अनुसरण करके पुरोहितों के फेर से तथा झूठे आडम्बरों से बच कर निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति करेगा। निर्वाण प्राप्त हो जाने के बाद व्यक्ति न तो जन्म लेता है और न मरता है। महात्मा बुद्ध ने अपनी तपश्चर्या के दौरान चार सत्यों की पहचान की —

  1. संसार दुःखों का घर है।
  2. दुःखों का मूल कारण मनुष्य की तृष्णा एवं लालसा है।
  3. तृष्णा पर विजय पाकर दुःखों से मुक्ति पाई जा सकती है।
  4. अष्टमार्ग तृष्णाओं (इच्छाओं) पर विजय पाने का सरल उपाय है।

इस प्रकार महात्मा बुद्ध ने संसार को अज्ञानता के अन्धकार से निकालकर एक नए ज्ञान के संसार में प्रवेश करवाया और 642 ई०पूर्व 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर ( कसया, जिला देवरिया) शालवन में प्रवास के दौरान जब उनका अन्तिम समय निकट आया तो उनके शिष्य रोने लगे। तब बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द को पास बुलाकर उपदेश दिया-आनन्द ! मत रो और निराश न हो। जो जन्मा है उसका अन्त भी अवश्य होगा। यह मत सोचो कि मेरे बाद तुम्हारा कोई गुरु नहीं रहेगा। मैंने जो उपदेश दिए हैं, वे ही तुम्हारे गुरु होंगे। इस प्रकार अपने शिष्यों को रोते बिलखते छोड़ उन्होंने इस नश्वर संसार से सदा-सदा के लिए विदा ली अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति की।

बुद्ध ने न तो मन्दिर बनाए न ही स्मारक उन्होंने न कोई देश जीता न कोई साम्राज्य ही स्थापित किया उन्होंने लोगों के दिलों को जीतने की कोशिश की थी। इसीलिए आज भी उनकी ज्योति संसार में जगमगा रही है। आज अनेक देशों में बौद्ध धर्म फैला हुआ है। इस विषय में निम्नलिखित पक्तियाँ पठनीय हैं

भारत-गगन में उस समय फिर एक वह झण्डा उड़ा,
जिसके तले आनन्द से, आधा जगत आकर जुड़ा।
वह बौद्धकालिक सभ्यता है. विश्व भर में छा रही,
अब भी जिसे अवलोकने को भूमि खोदी जा रही ।।


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