HBSE Class 8 नैतिक शिक्षा Chapter 7 – मनुष्य के आन्तरिक शत्रु Explanation Solution

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HBSE Class 8 Naitik Siksha Chapter 7 मनुष्य के आन्तरिक शत्रु Explanation for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 8th Book Solution.

मनुष्य के आन्तरिक शत्रु Class 8 नैतिक शिक्षा Chapter 7 Explanation


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहता है लेकिन भौतिकता के वशीभूत होने पर उसके मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इन पर नियन्त्रण करके ही मनुष्य सबके प्रति समभाव रख सकता है। जब मनुष्य कामनाओं के अधीन हो जाता है तब उनके पूरा न होने पर वह आवेश में आकर कोई दोष कर बैठता है। कामनाओं के कारण ही उसके भीतर काम, क्रोध, लोभ व मोह की उत्पत्ति होती है और इन्हीं के वशीभूत होकर मनुष्य गलत आचरण करता है। अतः इन्हीं विकारों को मनुष्य के आन्तरिक शत्रु बताया गया है।

(1) एक ब्राह्मण था। उसे किसी कार्यवश बाहर जाना था। पत्नी पहले से ही घर से बाहर गई हुई थी और शिशु घर पर था। उसने सोचा शिशु को किसके भरोसे छोड़कर जाए। तभी उसके मस्तिष्क में एक उपाय आया- ‘क्यों न पुत्र के समान पाले गए नेवले को पुत्र की रक्षा के लिए नियुक्त कर कार्य के लिए चला जाऊँ।’ ऐसा निश्चय करके ब्राह्मण चला गया। ब्राह्मण के जाने के बाद नेवले की दृष्टि काले साँप पर पड़ी जो शिशु की तरफ आगे बढ़ रहा था। उसने शिशु की रक्षा के लिए साँप को मारकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। नेवले का मुख साँप के खून से लथपथ हो गया। इसी दौरान ब्राह्मण घर आ गया। नेवले के मुख को खून से लथपथ देखकर ब्राह्मण ने सोचा- नेवले ने शिशु को मारकर खा लिया है। उसने क्रोधित होकर पुत्र-मोह में नेवले को मार दिया।

गीता में भी कहा गया है-

क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहत्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।

क्रोध से सम्मोह होता है, सम्मोह से स्मृतिविभ्रम, स्मृतिभ्रंश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश होने पर मनुष्य ही नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार ब्राह्मण ने क्रोधवश और पुत्रमोहवश बिना कुछ सोचे-विचारे वफादार नेवले को मार दिया।

जब ब्राह्मण ने अन्दर जाकर देखा, तो शिशु स्वस्थ खेल रहा था और उसके पास एक काला बड़ा साँप मरा पड़ा था। यह देखकर ब्राह्मण को बहुत पश्चाताप हुआ।

नास्ति क्रोधसमो वह्नि, नास्ति मोहसमो रिपुः।

क्रोध के समान कोई अग्नि नहीं है और मोह के समान शत्रु नहीं है, जैसे ब्राह्मण ने क्रोध के वशीभूत होकर और मोह रूपी शत्रु से ग्रस्त होकर नेवले को मार दिया।

(2) सुबुद्धि और दुर्बुद्धि घनिष्ठ मित्र थे। दोनों मित्र खुदाई का काम करते थे। एक दिन खुदाई करते समय उन्हें खजाने से भरा हुआ घड़ा मिला। सुबुद्धि अपने मित्र दुर्बुद्धि से बोला, मित्र ! इसे अपने पास रख लो, बाद में आपस में बराबर-बराबर बाँट लेंगे। दुर्बुद्धि के मन में लोभ आ गया। उसने लोभवश सोचा ‘यदि मैं सुबुद्धि को मार दूँ तो सारा खजाना मेरा हो जाएगा।’ उसने सुबुद्धि को मारने के लिए एक जहरीले साँप को उसके कमरे में छोड़ दिया। परन्तु सुबुद्धि पहले से ही किसी कारणवश बाहर गया हुआ था। कुछ समय बाद दुर्बुद्धि ने यह देखने के लिए कमरे में प्रवेश किया कि मित्र की मृत्यु हुई है या नहीं। जैसे ही उसने प्रवेश किया, वैसे ही दरवाज़े के पीछे फन फैलाए बैठे साँप ने उसे काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई।

सच ही कहा है-

नास्ति काम समो व्याधिः, नास्ति लोभसमो पाशः ।

कामनाओं के समान रोग नहीं है और लालच के समान बन्धन नहीं है। जैसे दुर्बुद्धि ने कामनाओं के वशीभूत होकर और लालच में आकर मित्र को मारने का प्रयास किया किन्तु अपने ही प्राण गँवा दिए।

दोनों प्रसंगों से हमें यही शिक्षा मिलती है-‘काम, क्रोध, मोह तथा लोभ ये सभी मनुष्य के आन्तरिक शत्रु हैं और उसकी उन्नति में बाधक हैं।’

जैसे-

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।

काम, क्रोध, लोभ तथा मोह ये सभी दोष सदा नाश की ओर ले जाते हैं। हमें अपने अन्दर इन दोषों को उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहिए तथा जीवन में संयम, सन्तोष व सदाचार जैसे गुणों को अपनाना चाहिए।


गीता-पाठ (पठन और मनन के लिए)

गीता जीवन जागृति का पावन मन्त्र है। इस मन्त्र ने कितने ही कर्तव्यविमुख अर्जुन मनों को कर्म क्षेत्र में विजय दिलाई है। गीता में जीवन की बहुविध धाराओं का एकान्त समागम है। यह जीवन स्फूर्ति का उद्गम स्रोत है। प्रस्तुत पाठ में गीता के सातवें, आठवें और नौवें अध्याय को सार रूप में दिया जा रहा है।

सप्तम अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का नाम ज्ञानविज्ञान योग है। इस अध्याय में 30 श्लोक हैं। इस अध्याय में विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन है। इसमें भगवान् की व्यापकता का प्रतिपादन एवं भगवद् भक्तों की प्रशंसा की गई है। आसुरी स्वभाव वाले व्यक्तियों की निन्दा की गई है। इस अध्याय में बताया गया है कि संसार के सकल पदार्थों में कारण रूप से भगवान् विद्यमान है। भगवत् भक्तों के भेद और ज्ञानी पुरुष को भगवान् की आत्मा माना है तथा अन्य देवताओं की उपासना के फल का निरूपण करते हुए भगवान् के स्वभाव, प्रभाव जानने वालों की प्रशंसा और प्रभाव न जानने वालों की निन्दा की गई है। संसार में व्याप्त मोह ममतारूपी माया को पार करने के उपाय का वर्णन करते हुए कहा है कि-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।

यह त्रिगुणदैवी घोर माया अगम और अपार है।
आता शरण मेरी वही जाता सहज में पार है।।

मेरी यह अद्भुत त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है, जो लोग मुझको निरन्तर भजते हैं, वे इस माया के पार हो जाते हैं।

अष्टम अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय का नाम अक्षरब्रह्म योग है। इस अध्याय में 28 श्लोक हैं। इस अध्याय में ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन है। इसमें अध्यात्म और कर्म आदि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्नों का उत्तर देकर भक्तियोग एवं जीवात्मा के प्रयाण के शुक्ल तथा कृष्ण मार्गों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। ब्रह्मवेताओं की ऊर्ध्वगति के सम्बन्ध में विचार करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि –

अग्निर्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।।

दिन, अग्नि, ज्वाला, शुक्लपक्ष, षट्, उत्तरायण मास में। तन त्याग जाते ब्रह्मवादी, ब्रह्म ही के पास में ।। जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छह महीने हैं, उस मार्ग में मर कर गए ब्रह्मवेत्ता योगीजन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

नवम अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय का नाम राजविद्या राजगुह्य योग है। इस अध्याय में 34 श्लोक हैं। इस अध्याय में ज्ञान के स्वरूप का वर्णन, जगत की सृष्टि का प्रतिपादन किया गया है। भगवान् का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति के व्यक्तियों की निन्दा, सकाम और निष्काम भक्ति के फलों का निरूपण किया गया है। दैवी प्रकृति वाले व्यक्तियों के द्वारा भगवत् भजन के प्रकार का वर्णन किया है। भगवान् का सर्वात्मरूप से स्थिति का उसके प्रभाव का वर्णन किया है। अनन्यभाव से भक्ति करने वाले अधम पुरुष को भी भगवान् की प्राप्ति का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि-

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।

यदि दुष्ट भी भजता अनन्य सुभक्ति को मन में लिए। है ठीक निश्चयवान् उसको साधु कहना चाहिए।। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मुझ को निरन्तर भजता है, तो वह भी साधु ही मानने योग्य है क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है, अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमात्मा के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।

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