ईसाइयत एवं इस्लाम : उदय व टकराव Class 10 इतिहास Chapter 5 Notes – भारत एवं विश्व HBSE Solution

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ईसाइयत एवं इस्लाम : उदय व टकराव Class 10 इतिहास Chapter 5 Notes


ईसाइयत – ईसाइयत की स्थापना ईसा की प्रथम शताब्दी में जीसस ने की, जिन्हें ईसा मसीह भी कहा जाता है। इस मत का उदय एशिया माइनर के फिलिस्तीन प्रदेश में हुआ था। इस प्रदेश में यहूदी लोग रहते थे।

इसी क्षेत्र में नज़ारेथ नामक स्थान पर 6 ई. पूर्व में एक यहूदी परिवार में ईसा मसीह का जन्म हुआ। उनकी माता मरियम तथा पिता जोसेफ थे। उन दिनों फिलिस्तीन का प्रदेश रोमन सम्राट ओक्टेवियन सीजर के राज्य का अंश था। ईसा मसीह ने यहूदियों में नए सम्प्रदाय का प्रचार आरम्भ कर दिया। बहुत से लोग ईसा मसीह के शिष्य बन गए और वे ईसाई कहलाने लगे। वे एक ईश्वर के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं को नहीं मानते थे।

दूसरी ओर सम्राट सीजर ने रोम में निरंकुश राज्य की स्थापना कर दी। उसके साम्राज्य के लोग सम्राट की भी देवता के रूप में पूजा करने लगे। ईसा मसीह सम्राट की पूजा का विरोध करता था। साम्राज्य के अधिकारियों ने इसे देशद्रोह माना तथा ईसा मसीह को कैद कर लिया। उन पर ईश्वर का पुत्र कहलवाने के आरोप लगा दिए तथा उन्हें मृत्यु दण्ड दे दिया गया।

ईसाइयत का प्रचार – जीसस के अनुयायी ईसाई कहलाते थे। उनके उपदेश ‘बाइबिल’ नामक ग्रंथ में संग्रहीत किए गए। बड़ी संख्या में लोग ईसाई भिक्षु बन कर ईसाइयत का प्रचार करने लगे। ईसा मसीह के प्रमुख शिष्य संत पॉल तथा संत पीटर ने जीसस के मत का सबसे अधिक प्रचार किया।

सम्राट कान्स्टेन्टाइन तथा ईसाइयत – 306 ई. में सम्राट कान्स्टेन्टाइन रोम का सम्राट बना। इस समय रोमन साम्राज्य पर जर्मन जातियाँ आक्रमण कर रही थी। इनके आक्रमणों से साम्राज्य की दशा खराब हो रही थी। सम्राट ने अनुभव किया की साम्राज्य की रक्षा के लिए जनता की सहानुभूति प्राप्त करना उपयोगी होगा। अतः उसने जनता में लोकप्रिय धर्म को स्वयं स्वीकार कर लिया जिससे उसे साम्राज्य की ईसाई जनता का समर्थन मिल गया।

ईसाई मत की संस्थाएँ – ईसाइयत में अनुयायियों का उपासना घर गिरजाघर (चर्च) कहलाता है। चर्च में प्रार्थना के लिए एक पादरी की नियुक्ति की जाती है। ईसाई मत का प्रमुख पोप कहलाता है जो ईसाइयों का सर्वोच्च गुरु व पथ-प्रदर्शक होता है।

पाँचवीं सदी में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद अराजकता के काल में लोगों ने अपनी भूमि चर्च को दान कर दी जिसके कारण गिरजाघर बड़ी-बड़ी जागीरों के स्वामी बन गये। गिरजाघर की सम्पत्ति के रख रखाव का दायित्व पोप का होता है। अतः उसकी शक्ति बहुत बढ़ गई। रोमन साम्राज्य के पतन के बाद यूरोप में पोप के प्रभाव में बढ़ोत्तरी हुई। कालान्तर में ईसाई मत दो भागों में बंट गया था। एक सम्प्रदाय को रोमन कैथोलिक चर्च तथा दूसरे सम्प्रदाय को प्रोटेस्टेंट कहा जाता था। रोमन कैथोलिक चर्च के अनुयायियों का मानना है कि वेटिकन नगर में स्थित पोप ईसा मसीह का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी है। परम्परागत ईसाइयत में सुधार की प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रोटेस्टेंट मत का उदय पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ था। इसके प्रवर्तक मार्टिन लूथर माने है।

रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट में अंतर –

रोमन कैथोलिक मत प्रोटेस्टेंट मत
  • बाइबल के साथ-साथ रोमन पोप को भी मानते हैं।
  • पोप सर्वोच्च हैं।
  • ईश्वर तक केवल पोप के माध्यम से पहुंचा जा सकता है।
  • केवल बाइबल ही मान्य है।
  • पोप मान्य नहीं है।
  • ईश्वर तक पहुंचने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं है।

इस्लाम – इस्लाम का उदय सातवीं शताब्दी में अरब में हुआ था। इसके संस्थापक हज़रत मोहम्मद थे। इनका जन्म 570 ई. में अरब प्रायद्वीप के मक्का नामक नगर में हुआ। इनके पिता का नाम अब्दुल्ला तथा माता का नाम अमीना था। बचपन में ही हज़रत मोहम्मद के माता-पिता का देहांत हो गया था। उनका लालन-पालन उनके चाचा अबु तालिब ने किया। बचपन से ही वे चिन्तनशील प्रवृत्ति के थे। वयस्क होने पर वे अपने चाचा अबु तालिब के साथ व्यापारिक यात्राओं पर जाने लगे। 25 वर्ष की आयु में उनका विवाह खदीजा नामक एक धनी विधवा से हुआ जो आयु में उनसे लगभग 15 वर्ष बड़ी थी ।

अरब के लोग उस समय बहु- देववाद में विश्वास करते थे। हज़रत मोहम्मद प्रार्थना में लीन रहने लगे। मक्का के पास हीरा की पहाड़ी गुफा में बैठकर वे ध्यानमग्न होकर प्रार्थना करते थे। एक दिन जिब्राईल नामक देवता के माध्यम से अपने ईश्वर या अल्लाह का आदेश मिला कि वे सत्य का प्रचार करें। उन्होंने जो उपदेश मक्का के लोगों को दिया वही इस्लाम कहलाया।

इस्लाम का प्रचार – हज़रत मोहम्मद को अल्लाह का पैगम्बर माना गया। उन्होंने मक्का के बहु-ईश्वरवादी लोगों को संदेश दिया कि ईश्वर एक है और मैं उसका पैगम्बर (दूत) हूँ। अल्लाह के अतिरिक्त कोई भी पूजनीय नहीं है। उस समय वहाँ काबा में देवी देवताओं की मूर्तियों की पूजा होती थी। जब हज़रत मोहम्मद ने मूर्ति पूजा का विरोध किया तो मक्का के लोग उनके विरुद्ध हो गए। उनके विरोध के कारण उन्हें मक्का छोड़कर मदीना नामक नगर में जाना पड़ा। इस्लाम में यह घटना हिज़रत कहलाती है। यह घटना 622 ई. में हुई‌।

इस्लाम की शिक्षाएँ – इस्लाम में अल्लाह को ईश्वर माना जाता है तथा हज़रत साहब को उसका दूत माना जाता है। इस्लाम के मूलमंत्रों को कलमा कहा जाता है जिसके अनुसार अल्लाह के अतिरिक्त कोई भी पूजनीय नहीं है। इस्लाम का अनुयायी दिन में पाँच बार ईश्वर से प्रार्थना करता है जिसे नमाज़ कहा जाता है। नमाज़ का समय निर्धारित होता है। रमज़ान के पवित्र मास में इस्लाम के अनुयायी को व्रत रखना पड़ता है जिसे रोजा कहा जाता है। हज़रत साहब ने अपने मत का प्रचार किया तो मदीना के लोग उनके अनुयायी बन गये। इसके बाद उन्होंने मक्का पर हमला किया तथा उनको पराजित किया जिसके बाद उन्होंने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया। 632 ई. में हज़रत साहब की मृत्यु हो गई। चार पवित्र खलीफा बारी-बारी उनके उत्तराधिकारी बने। उनका मुख्य कार्य केवल इस्लाम का प्रचार करना था। धीरे-धीरे जहाँ खलीफाओं की राजनैतिक सत्ता स्थापित होती गई वहाँ इस्लाम का प्रचार होता गया। प्रथम खलीफा अबूबक्र को छोड़कर शेष तीनों खलीफाओं की उनके विरोधियों द्वारा हत्या कर दी गई।

ईसाइयत एवं इस्लाम का टकराव – खलीफाओं के काल में उनका राज्य बड़ा साम्राज्य बन गया, जिसमें पर्शिया, इराक, आर्मेनिया, काशगर, तुर्किस्तान, एशिया माईनर, फिलिस्तीन, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका व स्पेन शामिल थे। ईसाई मत का जन्म फिलिस्तीन प्रदेश में हुआ था। यह प्रदेश इस्लामी शासकों के अधीन आता था। यूरोप से बड़ी संख्या में ईसाई यहां पवित्र यात्राओं पर आते थे। पहले उन्हें तंग नहीं किया जाता था।

1071 ई. में तुर्कों ने मेंजीकर्ट की लड़ाई में बैजंटाईन साम्राज्य की सेना को हरा दिया। इस विजय के बाद फिलिस्तीन जाने वाले उस मार्ग पर मुसलमान तुर्कों का अधिकार हो गया जिस मार्ग से यूरोपीय लोग वहाँ की पवित्र भूमि पर जाते थे। तुर्कों के अधिकार के बाद यहां जाना कठिन हो गया।

क्रूसेड – यरुशलम में रहने वाले ईसाइयों की स्थिति बदतर हो गई थी। मुसलमानों ने ईसा मसीह की पवित्र समाधि नष्ट कर दी तथा वहाँ रहने वाले ईसाइयों को मार डाला। यरुशलम में रहने वाले बचे हुए ईसाई बंदी जीवन जी रहे थे। वे अपना उत्सव नहीं मना सकते थे। उन पर अनेक प्रकार के टैक्स लगा दिए गए थे। उनके घरों में भी कीचड़ फेंका जाता तथा विरोध करने पर भयंकर यातनाएँ दी जाती। कई बार उनकी हत्या कर उनकी संपत्ति छीन ली जाती थी। जबरन मुसलमान बनाया जाता था।

फिलिस्तीन में ईसाइयों की स्थिति व तीर्थयात्रियों पर होने वाले अत्याचार की सूचनाएँ यूरोप पहुँचने लगी। अतः ईसाई जगत इसके प्रति उदासीन नहीं रह सकता था। अब पुण्यभूमि को मुसलमानों से मुक्त कराने व वहाँ की यात्रा को सुरक्षित बनाने पर यूरोप में विचार होने लगा। इसी विचार ने क्रूसेड को जन्म दिया। ईसाइयत व इस्लाम के टकराव को ‘क्रूसेड’ कहा जाता है। यह टकराव ग्यारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक से तेरहवीं शताब्दी के अंत तक यूरोप के ईसाइयों द्वारा फिलिस्तीन स्थित ईसाई धार्मिक स्थानों को मुसलमानों से आज़ाद कराने के लिए हुआ।

क्रूसेड आठ अभियानों के समूह को कहा जाता है। इनमें प्रथम चार प्रमुख क्रूसेड थे जबकि शेष चार सामान्य क्रूसेड कहे जाते हैं।

यूरोप में इस समय मुसलमानों के आक्रमणों से बैजन्टाईन सम्राट एलेक्सियस बड़ा परेशान था। वह इस संघर्ष में खुद को अकेला समझ रहा था। उसने यूरोपीय सामन्तों एवं पोप से मदद की गुहार लगाई। इसी समय पवित्र भूमि को मुसलमानों से छुड़ाने व सुरक्षित यात्रा मार्ग के प्रश्न पर पीटर द हरमिट यूरोप के लोगों को संगठित कर रहा था।

पीटर द हरमिट ने यरुशलम की यात्रा की थी । यरुशलम के ईसाई प्रमुख ने उसे यूरोप के लोगों के नाम पत्र दिए थे। ये पत्र लेकर वह रोम के पोप के पास पहुँचा व ईसाई धर्म स्थलों को मुसलमानों से मुक्त कराने के लिए युद्ध की तैयारी की अनुमति माँगी।

पीटर द हरमिट के प्रयासों से यूरोप के लोग यरुशलम पर ईसाइयों के पुनः अधिकार के लिए तैयार हो रहे थे। सम्राट एलेक्सियस मुसलमानों के विरुद्ध पोप से सहायता मांग चुका था। अत: पोप ने 1095 में इस स्थिति पर विचार करने के लिए रोम में धर्म सभा बुलाई। 27 नवंबर 1095 को पोप ने सभा सामने पूर्व में रहने वाले ईसाइयों की दुर्दशाएं, पुण्यस्थलों की मुसलमानों के द्वारा उपेक्षा व आक्रमण के कारण यूरोप की स्थिति को विस्तारपूर्वक रखा।

अगले दिन 28 नवंबर को युद्ध अभियान की रूपरेखा तैयार की गई। इसमें यह भी तय हुआ कि इस यात्रा में शामिल होने वाले लोग रंगीन कपड़े का क्रास अपने कोट पर लगाएंगे और इसी कारण उन्हें क्रूसेडर्स कहा जाएगा। संघर्ष में शामिल होने वालों की संपत्ति की रक्षा बिशप करेंगे। यरुशलम पहुँचने वाले या इस प्रयास में मारे जाने वालों के सारे पाप माफ कर दिए जाएंगे लेकिन यदि युद्ध से भाग गए तो ईसाई मत से बाहर निकाल दिए जाएंगे।

चार बड़े क्रूसेड –

प्रथम क्रूसेड – 15 अगस्त 1096 का दिन आया और शासक, सामंत, बिशप, पुजारी, भिक्षु, अमीर-गरीब, स्त्री, बच्चे युद्ध के लिए यरुशलम की ओर बढ़ने को तैयार हो गए। पीटर द हरमिट के नेतृत्व में एक आकुल जन सैलाब इकट्ठा हो गया । वह नाईट वाल्टर के साथ अस्सी हजार अनुयायियों के साथ जर्मनी-हंगरी मार्ग से बेजन्टाईन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुनतुनिया की ओर बढ़ चला।

जर्मन व फ्रांसिसी शासकों के प्रयासों से तीन लाख की सेना कुस्तुनतुनिया पहुंची। सेना कुस्तुनतुनिया से सीरिया की ओर बढ़ी जहां से वे येरुशलम तक पहुंचना चाहते थे। फ्रांस के शासक रेमंड के दल ने येरुशलम को जीत लिया।

दूसरा क्रूसेड – 1144 ई. में एडेसा नामक नगर पर मुसलमानों ने अधिकार कर लिया। यूरोप के ईसाइयों को पुनः येरुशलम की चिंता हुई। ईसाइयों की इसी चिंता ने यूरोप के विभिन्न भागों के शासकों को सेना बना येरुशलम की ओर जाने के लिए विवश किया। इस सेना में जर्मन और फ्रांस सम्राट भी शामिल थे। लेकिन यह सेना एशिया माइनर पार करते ही नष्ट हो गयी। केवल कुछ लोग ही येरुशलम पहुंचे। इस अभियान को ईसाइयत व इस्लाम का दूसरा संघर्ष कहा जाता है।

तीसरा क्रूसेड – मिस्र के सुल्तान की येरुशलम पर अधिकार करने की इच्छा हूई। जब यह सूचना यूरोप पहुंची तो जर्मन, फ्रांस व इग्लैण्ड के शासक ने येरुशलम जाने का निर्णय किया। जर्मन सम्राट रास्ते में मर गया। इंग्लैंड के सम्राट ने मिस्र के साथ संधि कर ली जिसके अनुसार ईसाइयों को निर्विघ्न येरुशलम की यात्रा की सुविधा दिए जाने का वचन दिया गया।

चौथा क्रूसेड – 1202 में पोप इनोसेंट तृतीय के आह्वान पर एक बार पुन: येरुशलम की पवित्र यात्रा पर जाने के लिए यूरोप में सेना संगठित हुई। पोप का लक्ष्य था कि इस बार भूमध्य सागर को पार कर समुद्री मार्ग से येरुशलम जाया जाए। लेकिन दल में न तो अधिक लोग इकट्ठे हुए और न ही आवश्यक धन ही एकत्रित हो पाया इसलिए यह अभियान असफल हो गया।

चार छोटे क्रूसेड –

पाँचवां क्रूसेड ( 1217-1221 ) – पश्चिमी यूरोप के द्वारा येरुशलम को आजाद करवाने के लिए किया गया क्रूसेड असफल रहा।

छठा क्रूसेड ( 1228-1229 ) – पाँचवें क्रूसेड की असफलता के बाद यह अभियान छेड़ा गया, किन्तु इसमें बहुत कम ही लड़ाई हुई।

सातवाँ क्रूसेड ( 1248-1254 ) – इस क्रूसेड में फ्रांस के राजा लुई नवम को मुस्लिम सेना ने बुरी तरह से परास्त किया।

आठवाँ क्रूसेड ( 1270 ) – फ्रांस के राजा लूई नवम ने इस्लाम के खिलाफ क्रूसेड का ऐलान किया। यह क्रूसेड विफल रहा, क्योंकि लुई नवम की मौत हो गई और अभियान रुक गया।

ईसाइयत और इस्लाम में समानताएँ – यहूदी, ईसाई और इस्लाम, तीनों संप्रदाय एक ही स्रोत से निकले हैं। इन्हें अब्राहमी संप्रदाय भी कहा जाता है। इनकी समानताएं निम्नलिखित हैं:-

  1. तीनों का विश्वास है कि आत्मा का केवल एक ही जन्म होता है, और मृत्यु के बाद उसे या तो हमेशा के लिए स्वर्ग मिलता है, या नरक ।
  2. तीनों का विश्वास है कि एक दिन यह दुनिया खत्म हो जाएगी, और उस दिन उनको नरक और स्वर्ग बांटे जाएंगे।
  3. ये संप्रदाय केवल अपने-अपने दृष्टिकोण को ही परम सत्य मानते हैं। केवल उनके ही मार्ग से ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है क्योंकि ये मानते हैं कि केवल उनका ही मत सर्वोत्तम है।
  4. ईश्वर स्वर्ग में रहता है।

संघर्ष के प्रभाव –

  • पोप के आह्वान पर यूरोप के सभी वर्गों के लोग इसमें अपना योगदान देना चाहते थे लेकिन समय के साथ यह सांप्रदायिक उत्साह कम होता गया।
  • इन अभियानों ने ईसाइयों को मुसलमानों के विरुद्ध यूरोप में संगठित कर दिया था।
  • वह यूरोप से मुसलमान शासकों की सत्ता का अंत करने में सफल रहे।
  • ईसाइयों ने पुर्तगाल, स्पेन आदि क्षेत्रों से मुसलमानों की सत्ता को उखाड़ फेंका।
  • भारत या एशिया की वस्तुएं प्राप्त करने के नए रास्तों की खोज के प्रयास इसी दिशा में उठाए गए कदम थे।
  • यूरोप के ईसाइयों का संपर्क अब बाहरी दुनिया से हुआ जिसके कारण वहां अनेक राजनैतिक सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन आए।
  • मुसलमानों के साथ चले लंबे संघर्ष में यूरोप के अनेक सामन्तों की मौत हुई जिससे वहां सामंतवाद के अंत का आरंभ हो गया।
  • दो शताब्दियों के संघर्ष में सामन्तों के भाग लेने से उनकी जागीरों की देखभाल उनकी स्त्रियों ने की जिससे यूरोप में स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ।
  • एशिया व अरब से संपर्क होने से यूरोप के लोगों के खान-पान, रहन-सहन, आभूषणों व साज-सज्जा में परिर्वतन आया।
  • यूरोप के लोग अपने भोजन में एशियाई मसालों का प्रयोग करने लगे।

दिशासूचक यंत्र के अविष्कार से समुद्री खोजों को बढ़ावा मिला। सर्वप्रथम 1492 ई. में कोलम्बस ने अमरीकी महाद्वीप खोजा। पुर्तगाल के नाविक वास्को डी गामा ने ऐसे मार्ग का पता लगाया जिससे अरबों की मध्यस्थता के बिना भी एशिया की वस्तुओं तक अपनी पहुंच बनाई जा सकती थी। 1492 ई. के बाद अमरीकी महाद्वीप में ईसाइयत का फैलाव हुआ।

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