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मध्यकालीन समाज- यूरोप एवं भारत Class 10 इतिहास Chapter 4 Notes
प्राचीन काल में सामाजिक संरचना सरल थी। जो मध्यकाल तक आते-आते जटिल हो गई थी। यूरोप में मध्यकाल को अंधयुग कहा गया। इस काल में शक्तिशाली द्वारा कमजोर का शोषण किया गया।
यूरोपीय समाज —
मध्यकाल में यूरोपीय समाज तीन वर्गों में बांटा था। पहला वर्ग पादरियों का था। इनका मुख्य कार्य ईश्वर की सेवा करना और चर्च की व्यवस्था देखना था। दूसरा वर्ग सामन्तों का था, जिन पर समाज की रक्षा का भार था। तीसरा वर्ग सामान्य जन का था, जो ऊपरी दोनों वर्गों के लिऐ जीवन यापन के साधन जुटाता था।
1. पादरीवर्ग – समाज में पादरियों का वर्ग सर्वोच्च था। पादरी गिरजाघर में ईश्वर की सेवा में लगे रहते थे । गिरिजाघर ईसाइयों का उपासना घर होता था। ये पादरी एक प्रकार के भू-स्वामी होते थे। भूमि से प्राप्त आय का उपयोग ये पादरी अपने निजी हितों के लिये करते थे। राजा तथा लार्ड सामन्त इनसे परामर्श भी लेते थे। कई छोटे सामन्त तो इनसे कर्ज भी लेते थे। बड़े गिरजाघर के पादरी सुन्दर महलों में रहते, भड़कीले रेशमी वस्त्र, रत्न पहनते तथा घोड़े रखते थे। बड़े पादरियों के अतिरिक्त पादरियों की एक अन्य श्रेणी थी, जिसमें छोटे पादरी आते थे। वे छोटे गिरजाघर के संरक्षक होते थे, जो दूर किसी गाँव में स्थित होता था। ये मुख्यतः साधारण किसानों या शिल्पियों के पुत्र होते थे। इन पादरियों के पास एक मकान के अतिरिक्त कुछ भूमि भी होती थी। ग्रामवासी अपनी आय का दसवां भाग चर्च को देते थे। बड़े पादरियों की तरह ये छोटे पादरी अधिक पढ़े लिखे नहीं होते थे । गिरजाघर में नियुक्त करने से पहले बड़े पादरी (बिशप) द्वारा इनकी परीक्षा ली जाती थी। ये पादरी किसानों की तरह ही रहते थे। किसानों की तरह ही काम करते थे लेकिन जन्म, विवाह व मृत्यु से सम्बन्धित संस्कार इनके बिना पूरे नहीं माने जाते थे ।
2. सामन्त वर्ग – सामंतों का मुख्य कार्य न्याय व रक्षा करना था। भूमि पर इन्हीं का अधिकार था। बड़े भू-स्वामी काउंट या लार्ड कहलाते थे। शारीरिक क्षमता, तत्काल निर्णय, आदेश देने व आज्ञा पालन के गुण इनमें बचपन से ही विकसित किए जाते थे। इन्हें युद्धविद्या, आखेट, उचित खान-पान व घुड़सवारी की शिक्षा दी जाती थी। सामन्त न्यायालय में बैठकर न्याय करते थे। इनके पास सैनिको की एक टुकड़ी होती थी जिसका मुख्य कार्य युद्ध में भाग लेना था। सामन्तों का जीवन वैभवशाली था। वे बड़े महलों में रहते थे। बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे तथा इनके पास हजारों एकड़ भूमि होती थी। इनके यहाँ पादरी, अन्तःपुर प्रहरी के अतिरिक्त दर्जनों नौकर-चाकर होते थे।
छोटे सामन्तों की भू-सम्पदा को जागीर या मेनर कहा जाता था। मेनर में एक किला व सैकड़ों एकड़ भूमि होती थी। मेनर का भू-स्वामी अपनी भूमि पर दास किसानों से कृषि करवाता था, न्याय करता था तथा आवश्यकता पढ़ने पर अपने स्वामी की सैनिक सहायता भी करता था। वे बहुमूल्य गाऊन के साथ-साथ भड़कीले व रंगीन वस्त्र पहनते थे तथा गले में माला तथा अंगूठी डालते थे।
3. सामान्य जन – इस वर्ग का काम ऊपरी वर्गों के लिए संसाधन व खाद्य सामग्री जुटाना था। मध्यकालीन व्यवस्था कृषि पर आधारित थी। अत- इस वर्ग में बड़ी संख्या किसानों की थी । कृषि आधारित मध्यकालीन यूरोपीय अर्थव्यवस्था में रोटी, मांस व चमड़ा जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने वाला किसान भी भू-स्वामियों की सम्पत्ति माना जाता था। वह भू-स्वामी की भूमि पर भू-स्वामी के लिए काम करता था। भू-स्वामी उसे जोतने के लिए भूमि देता था। उसे उपज का केवल कुछ भाग ही प्राप्त होता था। उस भाग में से भी दसवां हिस्सा वह चर्च को दे देता था।
उसके रहने के लिए उसकी घास-फूंस की एक झोंपड़ी होती थी। ये लोग दासों का जीवन व्यतीत करते थे। स्वामी या लार्ड की अनुमति के बिना ये अपने बच्चों के विवाह तक नहीं कर सकते थे। स्वामी या सामन्त की जागीर को ये लोग छोड़ कर नहीं जा सकते थे। स्वामी की भूमि पर खेती के अतिरिक्त स्वामी के घर पर इनको अनेक काम करने पड़ते थे, जिनका इन्हें पारिश्रमिक भी नहीं मिलता था। इस प्रकार के कार्यों को बेगार कहा जाता था।
किसानों की अनेक श्रेणियां थी। कुछ किसानों की अपनी जमीन होती थी इन्हें स्वतंत्र किसान कहा जाता था लेकिन समाज में इनकी संख्या कम थी। किसानों में बड़ी संख्या अर्धकृषकों की थी जो सामंत की जमीन पर खेती करते थे। ये ज़मीन के साथ ही बंधे होते थे । यदि जमीन कोई दूसरा सामंत ले लेता था तो इन अर्धदासों का स्वामी भी वही हो जाता था।
अंधविश्वास – यूरोपीय समाज मे सर्वत्र अंधविश्वास का बोलबाला था। ग्राम वासियों के लिए चर्च व चमत्कार में अभिन्न सम्बन्ध था। किसान बपतिस्मा ( चर्च की सदस्यता लेने वाली धार्मिक क्रिया ) का जल फसलों पर छिड़कते थे तथा पशुओं को पिला देते थे। बुद्धिमान पादरी अंधविश्वासों व चमत्कारों के विरोधी थे। लेकिन उनका प्रभाव सीमित था।
ईसाई मठों में जीवन – यूरोप में तीसरी से छठी शताब्दी के बीच मठवाद का विकास हुआ। मठों में एकांतवासी अथवा विरक्त भिक्षु रहते थे। मठों के पास भी बड़ी भू-सम्पत्ति होती थी। ये आत्मनिर्भर थे। प्रत्येक मठ के अपने प्रार्थना कक्ष, खेत, बाग व खलिहान होते थे। इन की जीवन यात्रा व्यस्त होती थी। आधी रात को उन्हें विशेष पूजा करनी होती थी, जिसकी सूचना उन्हें मठ में बजने वाला बड़ा घण्टा देता था। पूजा करने के बाद ये पुन- सो जाते थे। सुबह उठकर ये प्रातः कालीन प्रार्थना में भाग लेते थे। दोपहर तक ये अध्ययन व चिन्तन में अपना समय व्यतीत करते थे, दोपहर के भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम करके बाइबिल की प्रतिलिपि तैयार करने, बाग में काम करने, मछली पकड़ने, चमड़ा सुखाने, मूर्ति बनाने व रोटी सेंकने जैसे कार्य करते थे। ये संध्याकालीन प्रार्थना करने व भोजन करने के बाद सोने चले जाते थे। मठ का संचालन मठाधीश करता था। भिक्षुओं की तरह भिक्षुणियों के भी मत होते थे।
स्त्रियों का जीवन – मध्यकालीन यूरोप में सामन्तवर्ग की स्त्रियाँ वैभवपूर्ण जीवन व्यतीत करती थीं। सजना-सँवरना तथा विभिन्न प्रकार के खेल खेलना उनका शौक था। पति की अनुपस्थिति में मेनर या जागीर में उन्हें स्वामी की भूमिका निभानी पड़ती थी। जागीर या मेनर के नौकरों से काम लेना उनका मुख्य कार्य था। दूध देने वाले पशुओं, बगीचों व रसोईघर की देखभाल में उनका दिन व्यतीत होता था। उच्च वर्ग की कई स्त्रियां घुड़सवारी, आखेट व शस्त्र संचालन में भी दक्ष होती थीं। पति को प्रसन्न रखना तथा शारीरिक सुन्दरता बनाए रखने के गुण उन्हें बचपन में सिखा दिए जाते थे।
सामान्य जन या किसानों की स्त्रियों का जीवन बड़ा कष्टपूर्ण था। उन्हें दिनभर पति के साथ स्वामी की भूमि पर काम करना पड़ता था। वे भी पति के स्वामी की दासी होती थीं।
मनोरंजन के साधन – बड़े दिन का उत्सव नृत्य, संगीत व सामूहिक भोज द्वारा मनाया जाता था। ईस्टर के अवसर पर विशेष प्रकार के व्यंजन बनते थे। इंग्लैण्ड में धनुर्विद्या में भी लोगों की रुचि होती थी। मध्यकालीन मेले भी लोगों के मनोरंजन का स्रोत थे। सर्दियों में स्केटिंग का खेल लोकप्रिय था। मछली पकड़ना भी मनोरंजन का साधन था।
सामरिकता – मध्यकालीन यूरोप में योद्धा वर्ग के लोग नाईट कहलाते थे। इनका आधा जीवन युद्धों में तथा शेष आधा जख्मों को सहलाने में व्यतीत होता था। नाईट बनाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता था। सामान्यतः प्रत्येक सामन्त अपने पुत्र को यह प्रशिक्षण दिलाता था। नाईट बनने वाले बालक को किसी नाईट की उपाधि प्राप्त किए सामन्त के पास रहकर घुड़सवारी, वीरता व शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण प्राप्त करना होता था। उसकी शिक्षा पूर्ण होने पर एक उत्सव का आयोजन किया जाता जिसमें प्रशिक्षु को नाईट की उपाधि प्रदान की जाती थी।
नाईट – नाईट ढाल, शिरास्त्राण, भाला, बर्धी, चाकू व मुगदर रखता था । वह जिरहबख्तर भी धारण करता था। वह एक घुड़सवार का योद्धा होता था, जो युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाता थ। युद्ध में मरना या मारना उसकी वीरता का परिचय देता था।
शिक्षा – भाषा व साहित्य का अध्ययन कोई विद्वान इसी विचार से प्रेरित होकर ही करता था कि उसे ईसाइयत के विचारों को समझने में सहायता मिले। यूरोप में अधिकांश सामन्त अपना नाम तक नहीं लिखना जानते थे। उनकी रुचि युद्ध विद्या में थी शिक्षा के प्रति वे उदासीन थे। सामन्त लिखने का काम अपनी शान के विरुद्ध मानते थे।
प्राथमिक शिक्षा पर चर्च का आधिपत्य था। अधिकतर चर्च व मठों के साथ एक विद्यालय होता था। इनमें वे ही बालक पढ़ते थे जिन्होंने पादरी या भिक्षु जीवन अपनाने का व्रत लिया हो। कई विद्यालय अल्पशुल्क लेकर दूसरे छात्रों को भी प्रवेश दे देते थे।
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक विद्यार्थी पेरिस, ऑक्सफोर्ड, बोलाग्ना, विटेनबर्ग आदि विश्वविद्यालयों में पहुंचते थे। विश्वविद्यालयों के छात्रों का जीवन कठिनाईपूर्ण था। उन्हें अपने आवास का प्रबन्ध स्वयं करना पड़ता था। अनेक छात्रों को अपने परिवारों से बहुत मामूली आर्थिक सहायता मिलती थी।
परिणाम – मध्यकालीन यूरोपीय समाज में ईसाई धर्म का अत्याधिक प्रभाव था। चर्च की शक्ति व संपत्ति में आपार वृद्धि हुई थी जिससे उच्च वर्ग के पादरी विलासी, अनैतिक एवं भ्रष्टाचारी हो गए। यद्यपि चर्च ने ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में मुख्य भूमिका निभाई लेकिन शिक्षा धर्म केन्द्रित थी। सामंतवाद ने यूरोप में अपने पांव फैलाएं तथा यूरोपीय समाज पर सामंतों का प्रभाव बढ़ा। किसानों की स्थिति दयनीय थी। स्त्रियों को भी समानता का दर्जा प्राप्त नहीं था। यूरोप का समाज अंधकार युग में था।
भारतीय समाज —
तुर्कों के भारत पर आक्रमण के बाद मध्य एशिया से जीविका की तलाश में यहां बड़ी संख्या में लोग आए। इन लोगों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जिनका धर्म या पंथ यहां के मूल नागरिकों से भिन्न था।
अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी इसलिए सामाजिक संरचना में किसान का महत्वपूर्ण स्थान था। यहां का समाज ग्रामीण था जिसमें जमींदार के अतिरिक्त किसानों की अनेक श्रेणियां थीं। शहरी वर्ग भी अनेक वर्गों में बंटा था, जिसमें व्यापारी, कारीगर, बुद्धिजीवी लोग शामिल थे। धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से इस समाज में अनेक वर्ग थे –
शासकीय वर्ग – इसमें एक वर्ग वह था जो शाही शक्ति या केन्द्रीय सत्ता का प्रतिनिधित्व करता था। दूसरा वर्ग उन स्थानीय शासकों, सरदारों या भू-स्वामियों का था जो स्थानीय शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता था। यूरोपीय सामन्तों की तरह ये भूमि के मालिक नहीं थे लेकिन प्रभावशाली जरूर थे। पूर्व मध्यकाल में सत्ता पर नियंत्रण स्थानीय शासकों का था।
इस शासकीय वर्ग में एक ऐसा वर्ग भी था जो गाँव में रहता था। जिसको शासकीय अधिकार प्राप्त थे। यह वर्ग भू-स्वामियों का वर्ग था। ये बड़ी भूमि के स्वामी थे तथा राज्य इन्हें बड़े क्षेत्रों से लगान या कर एकत्र करने का दायित्व भी सौंप देता था, जिसके बदले में ये राजा से पारिश्रमिक भी प्राप्त करते थे। ये सामान्य किसानों की तरह रहते थे।
शासकीय वर्ग में विभिन्न राज्यों के बड़े पदाधिकारी और जमींदार शामिल थे। बड़े राज्य के पदाधिकारियों की आय का साधन राज्य द्वारा निर्धारित होता था या तो वे नगद वेतन प्राप्त करते थे या किसी बड़े क्षेत्र की भूमि से कर एकत्र करने का अधिकार प्राप्त करते थे। जिस क्षेत्र के भूमिकर का अधिकार इन्हें सौंपा जाता था वह क्षेत्र 13वीं से 15वीं सदी के बीच ‘इक्ता’ कहलाती थी तथा वही क्षेत्र 15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच ‘जागीर’ कहलाने लगा था।
मवासात – अनेक किसान न तो सरकार को कर देते थे और न ही सरकार का कोई आदेश मानते थे। सेना द्वारा आक्रमण किए जाने की स्थिति में वे लोग जंगलों, पहाड़ी प्रदेशों, मरुभूमि आदि दुर्गम स्थानों पर पलायन कर जाते थे। ऐसे क्षेत्र समकालीन विवरणों में मवास अथवा मवासात के नाम से जाने जाते थे।
जमींदार – मध्यकाल में स्थानीय शासक वर्ग जिसे परम्परागत रूप से शासन करने के अधिकार प्राप्त थे। जिस क्षेत्र पर उनका अधिकार मान्य होता था वह उनकी जमींदारी कहलाती थी।
धार्मिक वर्ग – मध्यकाल में भारत में हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमान भी रहते थे। इन दोनों धर्मों में एक वर्ग ऐसा था, जो धार्मिक क्रियाकलापों से अपनी जीविका चलाता था। मुसलमानों में इस वर्ग को उलेमा वर्ग कहा जाता था। मस्जिद के धार्मिक कार्य करने वाले मौलवी, मदरसों एवं मकतबों के शिक्षक, न्यायालयों के न्यायाधीश इसी वर्ग से आते थे। हिन्दुओं में ब्राह्मणों का ऐसा ही एक वर्ग था। धार्मिक क्रियाकलापों का कार्य हिन्दू समाज के लिए ब्राह्मण ही करते थे । मन्दिर के धार्मिक क्रियाकलाप और पाठशालाओं में शिक्षा देना इनका मुख्य काम था, लोग इन्हें दान देते थे। ये हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के विद्वान होते थे। गांव के सभी धार्मिक कार्य इन्हीं द्वारा सम्पन्न कराये जाते थे। हिन्दुओं में ब्राह्मण तथा मुसलमानों में उलेमा रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह सम्पन्न करवाते थे।
बलुतेदार- मध्यकाल में ग्रामीण सेवादारों का वर्ग जो काम के बदले फसल का एक भाग प्राप्त करते थे। महाराष्ट्र के गांव में इनकी संख्या 12 होती थी, इनमें सुनार, कुम्हार, बढ़ई, लुहार, कोली (नाव चलाने वाला) आदि शामिल थे।
व्यापारी व दुकानदार – कुछ व्यापारी वर्ग अन्तर्राष्ट्रीय तथा अंतक्षेत्रीय व्यापार करते थे तो कुछ स्थानीय फुटकर व्यापार करते थे। क्षेत्रीय व्यापार करने वाले लोग सेठ, वोहरा आदि कहलाते थे जबकि शेष, व्यापारी या बनिक कहलाते थे। उस समय व्यापारी किसी एक जाति या धर्म का नहीं होता था। राजस्थान के व्यापारी मारवाड़ी कहलाते थे। धनी होने के बावजूद ये व्यापारी अपने आपको निर्धन दिखाने का प्रयास करते थे ताकि वे लूटमार व राजकीय शोषण से बचे रहें। दिल्ली में व्यापारियों के दो मंजिले मकान भी थे। व्यापारी ही दुकानदार होते थे। कई बार ये ही सूदखोरी का काम करते थे तथा ब्याज पर धन देते थे।
कृषक वर्ग – मध्यकालीन भारतीय समाज में कृषकों का एक बड़ा वर्ग था। इस वर्ग में एक श्रेणी वह थी जो अपनी भूमि पर स्वयं खेती करती थी। 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में इसे ‘खुदकाश्त’ किसान कहा जाता था जो अपनी भूमि पर स्वयं काश्त या खेती करता था। दूसरी श्रेणी ‘पाहीकाश्त’ किसानों की थी। ‘पाही’ का अर्थ ऊपरी अथवा बाहरी होता है। अर्थात् पाहीकाश्त किसानों से अभिप्राय उन किसानों से था जो दूसरे गांव में जाकर खेती करते थे तथा वहां उनकी अस्थाई झोंपड़ियां होती थीं। पाहीकाश्त किसानों के अधिकार में उतनी ही जोत होती थी जितनी पर वह केवल अपने परिवार के श्रम का उपयोग करके खेती कर सकता था। मध्यकाल में तीसरी श्रेणी उन किसानों की थी जिनकी अपनी स्वयं की भूमि नहीं होती थी तथा वे किसी भू-स्वामी की भू भूमि पर खेती करते थे तथा उपज का एक हिस्सा प्राप्त करते थे। इन्हें ‘रैय्यती’ या ‘मुज़ारियान’ कहा जाता था। इन किसानों की स्थिति शोचनीय थी। राज्य की आय का बड़ा स्रोत भूमि-कर ही था तथा इसी भूमि-कर से ही राज्य अपने अधिकारियों को बड़े वेतन देता था।
स्त्रियाँ- लड़की का विवाह बाल्यावस्था में ही कर दिया जाता था। उनकी शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं होती थी विवाह के उपरांत उनका पूरा जीवन घर की चारदीवारी में ही व्यतीत होता था। बाल-विवाह प्रथा भी मध्यकाल में प्रचलन में थी। शासक कई शादियां करते थे। मुस्लिम शासकों के हरम में अनेक पत्नियों के अतिरिक्त अनेक अवैध पत्नियां रहती थीं। हरम में बड़ी संख्या में दासियां भी रखी जाती थीं। सती-प्रथा का प्रचलन मध्यकाल में बढ़ गया था। इसी काल में भारत में ‘जौहर प्रथा’ का भी प्रचलन हुआ।
मध्यकाल में कुछ स्त्रियों ने पर्दा प्रथा को त्यागने का साहस किया था, इनमें रजिया सुल्ताना तथा मीराबाई का नाम उल्लेखनीय है। मीराबाई ने पर्दा त्याग कर अपने जीवन को ईश्वर भक्ति को समर्पित कर दिया था तथा रज़िया सुल्ताना ने पर्दा त्याग कर दिल्ली सल्तनत का सिंहासन सम्भाला था। लगभग सभी वर्गों की स्त्रियां कताई का काम करती थीं। बंगाल की जो मलमल मध्यकाल में विश्व प्रसिद्ध थी, उसका धागा स्त्रियों द्वारा ही बनाया जाता था।
दास – अधिकतर युद्धबंदियों व कर न दे पाने वालों को दास बना लिया जाता था। गोआ और दिल्ली में दासों की बड़ी मंडियां लगती थीं। स्त्री, पुरुष व बच्चे सभी दासों में सम्मिलित थे। दासों का धर्म परिवर्तन कराकर उन्हें मुस्लिम बनाकर उनसे विभिन्न सेवा कार्य जैसे- घरेलू कार्य, पीकदान उठाना, छत्र उठवाना, अंगरक्षक कार्य इत्यादि करवाए जाते थे। इनकी दशा अत्यंत शोचनीय थी। मुगलकाल में अकबर ने युद्धबंदियों को दास बनाने की प्रथा को बन्द कर दिया था।
कारीगर – मध्यकाल में भारत में भवन निर्माण का एक बड़ा कार्य था, जिसमें बड़ी संख्या में कारीगर काम करते थे। इसके अतिरिक्त गांव व नगरों में अनेक कारीगर वस्तु निर्माण के कार्य में लगे होते थे। ये आमतौर पर जातियों के रूप में संगठित होते थे कपड़ा उद्योग एक ऐसा उद्योग था, जिसमें बड़ी संख्या में कारीगर शामिल होते थे। कागज बनाने के उद्योग में भी बड़ी संख्या में दक्ष कारीगर काम करते थे। बड़ी संख्या में कारीगर कच्चे रेशम को अटेरने व नील बनाने का भी काम करते थे।
मुख्य रूप से इन कारीगरों को दो भागों में बांट सकते हैं, एक वे ग्रामीण कारीगर जो साल में कुछ महीने ही काम करते जैसे — तेली, गुड़ बनाने वाले, नील तैयार करने वाले तथा दूसरे वे जो पेशेवर कारीगर थे जिन्हें व्यापारी कच्चा माल उपलब्ध करवा कर तथा अग्रिम धन देकर वस्तु निर्माण का कार्य करवाते थे।
मध्यकालीन भारतीय वस्त्र उद्योग उन्नत दशा में था। विदेशों में भारतीय कपड़े की बड़ी मांग थी। यही कारण था कि विदेशी भारतीय मसालों के साथ कपड़े के व्यापार में भी लाभ कमा रहे थे। भारत के पूर्वी व पश्चिमी तटों से यह कपड़ा यूरोप के देशों में पहुंचता था। मध्यकाल में ढाका की मलमल यूरोपीय बाज़ारों में आकर्षण का केन्द्र थी ।
शिक्षा, साहित्य एवं मनोरंजन – मध्यकाल में भारत की प्राचीन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र नालन्दा, तक्षशिला, मथुरा, गया, विक्रमशीला, उज्जैन आदि अवनति की ओर अग्रसर हो गए। नालन्दा विश्वविद्यालय को तो आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने आग के हवाले कर दिया। मंदिरों को मिलने वाला अनुदान बंद हो गया और अनेक मंदिर तोड़ दिए गए। इससे भारतीय ज्ञान-विज्ञान एवं शिक्षा को भारी आघात लगा ।
मध्यकाल में विभिन्न भाषाओं के साहित्य का भी विकास हुआ जिसमें मुख्य भूमिका भक्त संतों की रही। कल्हण की राजतरंगिनी, चन्दरबरदाई की पृथ्वीराज रासो, अमीर खुसरो का तुगलकनामा, तुलसीदास की रामचरितमानस, मलिक मोहम्मद जायसी की पदमावत्, सूरदास की सूरसागर, अबुल फजल की अकबरनामा इत्यादि इस काल की प्रमुख रचनाएं हैं।
मध्यकाल में भारत में मनोरंजन के साधनों में मुख्यत- संगीत, नृत्य, शिकार, कुश्ती, मल्लयुद्ध, जानवरों की लड़ाइयाँ, शतरंज इत्यादि थे। तीज, त्यौहार एवं उत्सवों से भी मनोरंजन होता था।
भक्ति आंदोलन – मध्यकालीन युग में भारतीय समाज को कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों एवं भेद-भावों से मुक्त कर उसके आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान को जागृत करने के लिए भक्ति आंदोलन का उदय हुआ। विभिन्न संतों जैसे रामानंद, गुरु नानकदेव, चैतन्य महाप्रभु, दादू दयाल, नामदेव, तुकाराम, रविदास, कबीरदास, मीराबाई, सूरदास, रसखान ने अपनी वाणी से समाज को कुरीतियों के विरुद्ध जागृत किया।