महात्मा गांधी व भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष Class 9 इतिहास Chapter 6 Notes – हमारा भारत IV HBSE Solution

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महात्मा गांधी व भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष Class 9 इतिहास Chapter 6 Notes


प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जब भारतीयों में असंतोष की लहर काफी तीव्र हो गई तो ब्रिटिश अधिकारियों को यह समझ आ गया कि जल्द ही भारतीयों को नियंत्रण में रखने के लिए उन्हें कुछ संवैधानिक सुधार लागू करने होंगे। जब स्थिति काफी बिगड़ गई तो भारत सचिव मान्टेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 ई. को भारत के भविष्य के बारे में एक घोषणा की जिसके आधार पर 1919 ई. का ‘भारत सरकार अधिनियम’ अथवा ‘मांटेग्यू चेम्सफोर्ड अधिनियम’ पास किया गया। 1919 ई. के एक्ट के द्वारा किए गए सुधार भारतीयों को सन्तुष्ट न कर सके क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों ने अपनी स्वामीभक्ति, बलिदान व वीरता का असाधारण प्रमाण दिया, परन्तु इस एक्ट ने उनकी आशा को निराशा में बदल दिया।

1917 ई. से 1947 ई. तक भारतीय राजनीति की बागडोर महात्मा गांधी के हाथ में रही। प्रथम महायुद्ध के बाद भारतीय राजनीति में एक नए युग का आरंभ हुआ, जिसे ‘गांधी युग’ भी कहा जा सकता है। गांधी युग के प्रारंभ होते ही यह राष्ट्रीय आंदोलन जन आंदोलन में बदल गया। सत्याग्रह और अहिंसा के मार्ग ने जनता में नया उत्साह और स्फूर्ति का संचार किया।

प्रारंभिक जीवन –

महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई. को काठियावाड़ के पोरबंदर में हुआ। उनके पिता राजकोट रियासत के दीवान थे। उनकी माता पुतलीबाई धार्मिक विचारों की महिला थी, जिसका उनके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। 13 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह कस्तूरबा से हो गया। वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए और वहाँ से वकील बनकर लौटे । इसके पश्चात् वे एक फर्म के कानूनी सलाहकार बनकर दक्षिण अफ्रीका चले गए। वहाँ रह रहे भारतीयों की दयनीय दशा देखकर उनको बहुत दुःख हुआ । उन्होने लोगों को संगठित करके दक्षिण अफ्रीका की सरकार के विरुद्ध आंदोलन चलाया और सरकार को विवश होकर लोगों पर से प्रतिबंध हटाने पड़े।

गांधी जी 1915 ई. में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे। वे गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचारों से बहुत प्रभावित हुए। वे उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। गांधी जी ने सत्याग्रह को बुराइयों का सामना करने के लिए रामबाण बताया। गांधी जी छूआछूत के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने दहेज प्रथा, बाल विवाह, मदिरापान, गोहत्या के विरुद्ध प्रचार किया। गांधी जी स्वदेशी के महत्व को समझते थे इसलिए उन्होंने स्वयं इसकी पालना करते हुए अपने अनुयायियों को खादी के वस्त्र पहनने के लिए प्रेरित किया।

महात्मा गांधी द्वारा प्रारंभिक सत्याग्रह –

चंपारन – सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने 1917 ई. में बिहार के चंपारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों पर बागान मालिकों द्वारा अत्याचार के विरुद्ध सत्याग्रह चलाया। चंपारन के अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें वहाँ से चले जाने के लिए कहा परंतु उन्होंने उनके आदेश की अवहेलना की। अंत में सरकारी अधिकारियों को उनकी मांगों के समक्ष झुकना पड़ा। बाद में सरकार ने किसानों की समस्याओं की जाँच-पड़ताल के लिए एक कमेटी गठित की। जिसके सदस्य महात्मा गांधी भी थे। यह भारत में सत्याग्रह की प्रथम जीत थी।

खेड़ा – गुजरात के खेड़ा जिले में फसलें तबाह हो गई तथा भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई। महात्मा गांधी ने किसानों की सहायता करने का निश्चय किया तथा सरकार को एक प्रार्थना पत्र लिखा कि कुछ समय तक किसानों से भूमि कर को स्थगित किया जाए परंतु सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया। तत्पश्चात महात्मा गांधी ने वहाँ पर भी आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का समाचार पूरे देश मे फैल गया। अंततः सरकार व किसानों में एक समझौते के द्वारा समाधान हो गया। ‘खेड़ा का संघर्ष’ भारत की जनता में जागृति लाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था।

अहमदाबाद – 1918 ई. में अहमदाबाद के मिल मालिकों व मजदूरों के बीच वेतन वृद्धि को लेकर झगड़ा हो गया। मजदूरों ने हड़ताल कर दी और महात्मा गांधी ने मजदूरों के समर्थन में सत्याग्रह किया। अन्ततः मिल मालिकों को मजदूरों की मांग माननी पड़ी और उनके वेतन में 35 प्रतिशत की वृद्धि कर दी गई।

रौलट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह –

प्रथम महायुद्ध के समय पारित किया गया ‘भारतीय सुरक्षा अधिनियम’ 31 मार्च, 1919 ई. को समाप्त होना था। इसलिए सरकार ने क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकने के लिए अन्य कोई कानून बनाने का निश्चय किया। फरवरी 1919 ई. में केंद्रीय विधान सभा में दो बिल पेश किए गए। इन बिलों के द्वारा नौकरशाही को क्रांतिकारी गतिविधियां दबाने के लिए असीम शक्तियाँ दी गई थीं। महात्मा गांधी ने वायसराय से इन बिलों को पास न करने की प्रार्थना की परंतु विरोध के बावजूद इनमें से एक बिल को पास कर दिया गया जिसे ‘ रौलट एक्ट’ का नाम दिया गया। महात्मा गांधी ने 30 मार्च, 1919 ई. को रौलट एक्ट के विरोध में और देशव्यापी हड़ताल करने की अपील की। बाद में यह तिथि बदलकर 6 अप्रैल कर दी गई परंतु दिल्ली जैसे शहरों में दोनों दिन हड़ताल हुई। इस सत्याग्रह आंदोलन में हिंदू-मुसलमान दोनों ने सक्रिय रूप से भाग लिया। गांधी जी की अहिंसा की अपील के बावजूद पंजाब व दिल्ली के कुछ इलाकों में गड़बड़ी हुई। गांधी जी ने उन इलाकों में जाना चाहा परंतु इससे पहले ही पलवल के स्टेशन पर उन्हें बंदी बना लिया गया।

[ काला कानून – रौलट एक्ट के अनुसार सरकार किसी भी व्यक्ति को केवल संदेह के आधार पर, उस पर मुकद्दमा चलाए जेल में डाल सकती थी और उसे वकील, दलील और अपील का कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। बिल के विरुद्ध लोगों में बहुत रोष था। लोगों ने इसे ‘काला कानून’ कहकर संबोधित किया। ]

महात्मा गांधी को बंदी बनाए जाने की सूचना भारतवर्ष में आग की तरह फैल गई। कई नगरों में पुलिस और जनता के बीच झगड़े हुए। इस बिगड़ती हुई स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए सरकार ने पंजाब के दो प्रसिद्ध नेताओं डॉक्टर सत्यपाल तथा डॉक्टर सैफुद्दीन किचलू को बंदी बनाने का आदेश दिया, जिससे स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई। लोगों ने हड़तालों व प्रदर्शनों का सहारा लेकर अपने नेताओं की रिहाई की मांग की परंतु सरकार ने लोगों को तितर-बितर करने के लिए उन पर गोलियां चला दी। जिसके परिणामस्वरूप कई लोग मारे गए और घायल हुए। इससे नगरवासी भड़क उठे और उन्होंने क्रोधित होकर कई बैंकों, गोदामों को लूट लिया और आग लगा दी। इस अवस्था में सरकार ने सेना को बुला लिया और अमृतसर नगर को बिग्रेडियर जनरल डॉयर को सौंप दिया।

हजारों लोग बैशाखी के उपलक्ष्य में हरमन्दिर साहिब आए हुए थे। हरमन्दिर साहिब के पास ही जलियाँवाला बाग में सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में एक सार्वजनिक सभा हो रही थी। लोगों की भारी भीड़ वहां एकत्रित हो गई थी। जनरल डायर ने लोगों को सबक सिखाने के लिए बिना चेतावनी दिए निहत्थी भीड़ पर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया। इस नरसंहार में मरने वालों की संख्या लगभग एक हजार और घायल होने वालों की संख्या तीन हजार थी। जलियाँवाला बाग नरसंहार राष्ट्रीय आंदोलन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इस नरसंहार का समाचार मिलते ही पूरे देश में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध और अधिक रोष फैल गया। समस्त देश में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय भावनाएँ प्रबल हो गई।

खिलाफत आंदोलन –

भारत के कुछ मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना धार्मिक नेता मानते थे । इस नाते उनकी खलीफा के साथ पूर्ण सहानुभूति थी। प्रथम विश्वयुद्ध में पराजित तुर्की के खलीफा के साथ न्यायोचित व्यवहार सुनिश्चित करने हेतु ब्रिटिश सरकार पर पर्याप्त दबाव बनाने के लिए इन मुसलमानों ने जिस आंदोलन का सूत्रपात किया वह ‘खिलाफत आंदोलन’ कहलाता है।

शौकत अली, मोहम्मद अली, अबुल कलाम आजाद व हकीम अजमल खां के नेतृत्व में खिलाफत कमेटी का गठन करके 24 नवंबर, 1919 ई. को एक ‘अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन’ का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की और सरकार के विरुद्ध अहिंसात्मक असहयोग की सलाह दी।

उन्होंने हिंदुओं को भी आदेश दिया कि वह तन, मन, धन से भारत के मुसलमानों का इस आंदोलन में साथ दें। 31 अगस्त, 1920 ई. को खिलाफत कमेटी के निर्णय के अनुसार असहयोग आंदोलन आरंभ कर दिया गया। जिस समय भारत के मुसलमान तुर्की के खलीफा की खिलाफत की सुरक्षा के लिए आंदोलनरत थे, उसी दौरान तुर्की के कमालपाशा जैसे आधुनिक मुस्लिम खिलाफत के अंत की योजना बना रहे थे। अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा को ‘आधुनिक तुर्की का निर्माता’ कहा गया है। साम्राज्यवादी शासन एवं खिलाफत प्रथा का अंत कर वहाँ नई सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक व्यवस्था कायम की गई। उनके विशेष प्रयासों से ही तुर्क जाति आधुनिक जाति बनी। कमाल पाशा ने तुर्की को ‘पंथ निरपेक्ष राष्ट्र’ घोषित करके आधुनिक रूप से शिक्षित किया तथा पुराने रीति रिवाजों को ही नहीं, बहुविवाह एवं बुर्के आदि को भी समाप्त किया। इसके बाद इन्होंने इस्लामी कानूनों को हटाकर उनके स्थान पर एक नई संहिता स्थापित की, जिसमें स्विट्जरलैंड, जर्मनी और इटली के संविधान की सब अच्छी बातें शामिल थीं।

असहयोग आंदोलन –

पिछले 35 वर्षों ( 1885 ई. से 1920 ई. तक) से कांग्रेस जिस नीति पर चल रही थी, उसमें 1919 ई. की निम्नलिखित घटनाओं ने महान परिवर्तन कर दिया जैसे :

  • प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा धोखा।
  • रौलट एक्ट
  • जलियाँवाला बाग हत्याकांड ।
  • मुसलमानों द्वारा खिलाफत आंदोलन की शुरुआत।

इन सब परिस्थितियों में सितंबर 1920 ई. में कलकत्ता में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बुलाया गया। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा, जो बहुमत से पास हो गया। दिसंबर 1920 ई. में नागपुर में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में इस निर्णय की पुष्टि कर दी गई। कांग्रेस ने अपना उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य में रहकर या इससे बाहर होकर स्वराज प्राप्त करना, पंजाब में किए जा रहे अत्याचार एवं अनुचित कार्यों का विरोध करना और हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करना रखा।

आंदोलन के कार्यक्रम :-

  • सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार।
  • सरकारी उपाधियों तथा अवैतनिक पदों को त्यागना।
  • सरकारी दरबारों तथा उत्सवों में सम्मिलित न होना।
  • सरकारी अदालतों का बहिष्कार करना।
  • पंचायतों की स्थापना करना।
  • विदेशी माल का बहिष्कार करना और उसके स्थान पर स्वदेशी माल का प्रयोग करना।
  • 1919 ई. के एक्ट के अनुसार होने वाले चुनावों में भाग न लेना।
  • सैनिकों, क्लर्कों और श्रमिकों द्वारा विदेश में नौकरी न करना ।
  • हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल देना व अहिंसा के मार्ग पर चलना ।

असहयोग आंदोलन का प्रारंभ गांधी जी ने स्वयं किया। उन्होंने भारत सरकार के सभी मेडल व पुरस्कार लौटा दिए जो उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में सरकार की सहायता करके प्राप्त किए थे। उन्होंने सरकार द्वारा दी गई ‘रत्न-ए-हिंद’ की उपाधि भी वापस कर दी। इनका अनुसरण करते हुए सैकड़ों देशभक्तों ने अपनी उपाधियाँ व पदवियाँ छोड़ दी। असहयोग आंदोलन को चलाने के लिए एक ‘तिलक स्वराज फंड’ बनाया गया। नई-नई राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण किया गया। बहुत से छात्रों ने सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया और वे राष्ट्रीय संस्थाओं में भर्ती हो गए।

जब इंग्लैंड का युवराज भारत आया तो उसका स्वागत बहिष्कार व हड़तालों के साथ किया गया। सरकार ने इस आंदोलन को दबाने के लिए दमन चक्र का सहारा लिया। बड़े-बड़े नेताओं को बंदी बना लिया गया। लोगों पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए। कांग्रेस व खिलाफत कमेटी को गैर कानूनी घोषित किया गया। सरकार के अत्याचारों व दमनचक्र के कारण यह आंदोलन पूर्णत: अहिंसात्मक न रह सका। कुछ ही महीनों में कैद किए हुए लोगों की संख्या तीस हजार के पार हो गई। सरकार ने इस आंदोलन को जितना दबाया, यह आंदोलन उतना ही जोर पकड़ता चला गया।

कार्यक्रम के अनुसार विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। विदेशी कपड़े के स्थान पर खादी को अपनाया गया और चरखे का प्रचलन बढ़ गया। विदेशी कपड़ों व शराब की दुकानों के सामने धरने दिए गए।

5 फरवरी, 1922 ई. को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में ‘चौरी-चौरा’ के स्थान पर लोगों की उत्तेजित भीड़ ने पुलिस के उकसाने पर एक पुलिस चौकी को आग लगा दी जिससे एक थानेदार और 21 सिपाही जल कर मर गए। महात्मा गांधी को इस घटना से बहुत दुख हुआ और उन्होंने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया।

असहयोग आंदोलन का महत्व –  इस आंदोलन में हिंदुओं, मुसलमानों, शिक्षित व अशिक्षित लोगों, अध्यापकों व छात्रों, पुरुषों और स्त्रियों ने भाग लिया। पहली बार राष्ट्रीय आंदोलन ने देशव्यापी आंदोलन का रूप धारण किया। अब लोगों के मन में से सरकार के विरुद्ध आवाज उठाने व जेल जाने का भय समाप्त हो गया। लोगों में सरकार से सीधी टक्कर लेने का जोश उत्पन्न हो गया। साथ ही साथ देश के अंदर कई नए रचनात्मक कार्य भी हुए जैसे-राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की स्थापना व लोगों को रोजगार प्रदान करना। लोग देश के लिए बड़े से बड़ा बलिदान देने के लिए तैयार हो गए।

सविनय अवज्ञा आंदोलन –

अंग्रेजी शासन के विरुद्ध गांधी जी का असहयोग आंदोलन एक साल में स्वराज के उद्देश्य को पूरा करने में असफल रहा। 1922 ई.-1929 ई. के बीच एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ घटी जिसके कारण फिर से एक नए आंदोलन की रूपरेखा तैयार हो गई और एक बार फिर गांधी जी के नेतृत्व में सभी भारतवासी एक नए आंदोलन में भाग लेने के लिए कूद पड़े।

साइमन कमीशन का विरोध – सरकार ने 1927 ई. में साइमन कमीशन की नियुक्ति कर भारतीय प्रशासन की जाँच तथा उसमें आवश्यक सुधार की सिफारिश करनी चाही। इसलिए सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की गई। सरकार का यह कहना था कि वह भारतीय प्रशासन में सुधार लाना चाहती थी परंतु इस कमीशन के संबंध में सबसे अनुचित बात यह थी कि इस कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे जिन्हें भारतीय समस्याओं का थोड़ा-सा भी अनुभव नहीं था। ऐसे में भारतीयों ने इस कमीशन का विरोध करने का निश्चय किया। सभी नेताओं ने इसके बहिष्कार का आह्वान किया। स्थान-स्थान पर काले बिल्ले लगाकर, हड़तालों व ‘साइमन वापस जाओ’ के नारों से साइमन का विरोध किया गया। प्रदर्शनकारियों को छिन्न-भिन्न करने के लिए ब्रिटिश शासन में भारतीयों पर लाठियाँ बरसाई जिसमें लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई।

पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव – जब देशभर में युवा क्रांतिकारी पूर्ण स्वतंत्रता के लिए बलिदान देने लगे तो कांग्रेस के भीतर भी सुभाष चन्द्र बोस जैसे युवाओं ने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को तीव्रता से उठाना शुरू कर दिया। इसके परिणामस्वरूप ही लाहौर अधिवेशन (1929 ई.) में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास करके अपना लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता रखा। 26 जनवरी, 1930 ई. को देशभर में ‘पूर्ण स्वतंत्रता दिवस’ मनाया गया।

दांडी यात्रा – सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रारंभ 12 मार्च, 1930 ई. को महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा से किया। आरंभ में गांधी जी के साथ 78 अनुयायियों ने भाग लिया परंतु धीरे-धीरे मार्ग में सैकड़ों लोगों ने उन्हें अपना समर्थन दिया। 24 दिन के पश्चात् 6 अप्रैल, 1930 ई. को महात्मा गांधी दांडी के समुद्र तट पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने समुद्र के पानी से नमक तैयार करके नमक कानून का उल्लंघन किया। उनका यह कार्य इस बात का प्रतीक था कि सारे देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया जाए।

1) देश के सभी लोग नमक बनाएं।

2) विद्यार्थी सरकारी स्कूलों का बहिष्कार करें।

3) शराब की दुकानों के समक्ष धरने दिए जाएं।

4) स्वदेशी का इस्तेमाल करके विदेशी का बहिष्कार किया जाए।

5) सरकार को किसी भी प्रकार का सहयोग व कर न दिया जाए।

सविनय अवज्ञा आंदोलन शीघ्र ही सारे देश में फैल गया। प्रत्येक संभव स्थान पर नमक बनाया गया अथवा अन्य कानूनों का उल्लंघन किया गया। सरोजिनी नायडू ने धरासना में तथा चक्रवर्ती राजागोपालाचार्य ने वेदारण्यम में ‘नमक सत्याग्रह’ किया। इसी तरह से डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने भी सविनय अवज्ञा आंदोलन में भागीदारी करते हुए यवतमाल में जंगल सत्याग्रह किया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 9 महीने के कारावास का दंड सुनाया।

खुदाई खिदमतगार – इस संगठन की स्थापना खान अब्दुल गफ्फार खान (बादशाह खान) ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान उत्तर- पश्चिमी सीमा प्रांत में की। हजारों की संख्या में पख्तून लाल कुर्ती पहनकर इसमें शामिल हुए तथा उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें ‘सीमांत गांधी’ भी कहा जाता है। उन्हें गिरफ्तार करके कारावास में डाल दिया गया। बादशाह खान मुस्लिम सांप्रदायिकता के विरोधी थे।

सरकारी दमन – ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन के कुछ समय के बाद ही गांधी जी को बंदी बना लिया और अपनी पुरानी दमन-नीति का सहारा लिया। लगभग साठ हजार लोगों को पकड़ कर जेलों में ठूंस दिया गया। कर न देने वालों की संपत्ति जब्त कर ली गई। सरकार के दमन चक्र के बावजूद आंदोलन सफलतापूर्वक चलता रहा। अंतत: स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए सरकार ने लंदन में ‘प्रथम गोलमेज सम्मेलन’ बुलाने का निश्चय किया। 12 नवंबर, 1930 ई. के दिन सम्मेलन प्रारंभ हुआ। इसमें लगभग 80 प्रतिनिधियों ने भाग लिया परंतु कांग्रेस का कोई भी प्रतिनिधि इसमें शामिल नहीं था, इसलिए कांग्रेस की अनुपस्थिति में कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाया।

गांधी- इर्विन समझौता – सरकार ने दूसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाने के लिए कहा और कांग्रेस के सभी नेताओं को 26 जनवरी, 1931 ई. के दिन बिना शर्त रिहा कर दिया। तत्पश्चात् 5 मार्च, 1931 ई. के दिन तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इर्विन व गांधी के मध्य एक समझौता हो गया जिसे ‘गांधी-इर्विन पैक्ट’ कहा जाता है। इसके अनुसार यह तय किया गया कि सरकार सभी राजनीतिक अध्यादेश व मुकद्दमें वापस लेगी। इसके जवाब में गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित करके दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना सुनिश्चित किया।

आंदोलन का दूसरा चरण – गांधी-इर्विन समझौते के अनुसार गांधी जी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन गए परंतु पहले सम्मेलन की भांति इस सम्मेलन में भी कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया, इसलिए गांधी जी निराशापूर्ण स्थिति में वापस आ गए। सरकार गांधी जी की अनुपस्थिति में आंदोलन के प्रति दमन-चक्र तेज कर चुकी थी। गांधी जी ने आंदोलन को पुनः आरंभ करने की घोषणा की तो सरकार ने कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करके कांग्रेस को गैर-कानूनी संस्था घोषित कर दिया।

साम्प्रदायिक पंचाट और पूना समझौता –

दूसरे गोलमेज सम्मेलन में साम्प्रदायिक प्रश्न पर भारतीय नेताओं में किसी प्रकार का निर्णय नहीं हो सका। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर से इस सम्बन्ध में फैसला किया, जिसे ‘साम्प्रदायिक पंचाट’ कहा जाता है। इसमें मुसलमान, सिक्ख और भारतीय ईसाइयों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गयी। अछूतों को हिन्दुओं से अलग मानकर पृथक निर्वाचन और प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया। प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं में स्त्रियों को तीन प्रतिशत स्थान सुरक्षित कर दिये गये। गांधी जी ने इसका विरोध किया क्योंकि यह भारतीय एकता के लिए हानिकारक था। गांधी जी ने इस घोषणा के विरोध में आमरण अनशन आरम्भ कर दिया जिससे सारे देश में हलचल मच गई। कुछ नेताओं के प्रयासों से गांधी जी व डॉ. अम्बेडकर के बीच समझौता हो गया जिसे “पूना समझौता’ कहा जाता है। इसके अनुसार सांप्रदायिक निर्णय में कुछ आवश्यक संशोधन किए गए।

गांधी जी के आमरण व्रत के समाप्त होने के पश्चात् सरकार ने तीसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाया, परंतु कांग्रेस ने इसका भी बहिष्कार करने का निर्णय लिया। इस सम्मेलन में कुछ निर्णय अवश्य लिए गए परंतु वास्तविक माँगों की पूर्णत: उपेक्षा की गई। गांधी जी ने जुलाई 1933 ई. को सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।

हरिजन यात्रा – पूना समझौते के बाद गांधी जी छुआछूत निवारण में जुट गये। 1933 ई.-1934 ई. में उन्होंने इसके लिए 20 हजार किलोमीटर की हरिजन यात्रा की तथा दो बार अनशन भी किया। उन्होंने अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘या तो वे छुआछूत को समाप्त करें या मुझे अपने बीच से हटा दें।’ गांधी जी ने मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश का मामला उठाया। इस प्रकार उनकी हरिजन यात्रा से छुआछूत में कमी आई तथा राष्ट्रीयता की भावना गाँव-गाँव एवं जन-जन तक पहुँची।

व्यक्तिगत सत्याग्रह –

1939 ई. में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ होने पर ब्रिटिश सरकार ने भारत को विश्व युद्ध में शामिल कर लिया। भारतीय नेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया। गांधी जी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का प्रस्ताव रखा, जिसे कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया। व्यक्तिगत सत्याग्रह के अंतर्गत चुने हुए सत्याग्रही को एक-एक करके सार्वजनिक स्थानों पर युद्ध के खिलाफ भाषण देकर गिरफ्तारी देनी थी। व्यक्तिगत सत्याग्रह 17 अक्टूबर, 1940 ई. को शुरू किया गया। विनोबा भावे पहले सत्याग्रही थे, जिन्हें 3 महीने की सजा हुई। जवाहरलाल नेहरू दूसरे तथा ब्रह्मदत्त तीसरे सत्याग्रही थे। इस व्यक्तिगत सत्याग्रह में 30000 लोगों ने भाग लिया।

भारत छोड़ो आंदोलन –

भारत छोड़ो आंदोलन के शुरू किए जाने का मुख्य कारण क्रिप्स मिशन की असफलता व जापान की बढ़ती हुई शक्ति थी। क्रिप्स मिशन के सुझावों में ब्रिटिश सरकार की भारतीयों को स्वराज देने की नीति स्पष्ट नहीं थी। जापान की बढ़ती हुई शक्ति से ब्रिटिश सरकार चिंतित थी क्योंकि भारतीयों के सहयोग के बिना वह इसका मुकाबला नहीं कर सकती थी। वहीं दूसरी ओर भारतीयों की यह सोच थी कि वे स्वयं जापान का मुकाबला करें इसलिए वे जापान के आक्रमण से पहले ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाना चाहते थे। उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पास किया। गांधी जी ने जनता से निष्क्रियता की भावना को दूर करने के लिए ‘ अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा दिया, ब्रिटिश सरकार के व्यवहार से तंग आकर कांग्रेस ने 8 अगस्त, 1942 ई. को बंबई अधिवेशन में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास किया। इसके अनुसार यह मांग की गई कि अंग्रेजों को तुरंत बिना शर्त भारत छोड़ देना चाहिए। भारत छोड़ो आंदोलन के प्रस्ताव के पास होने के अगले दिन ही कांग्रेस के मुख्य नेताओं जैसे गांधी जी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, अबुल कलाम आजाद, राजेंद्र प्रसाद, पट्टाभि सीतारमैया आदि नेताओं को बंदी बना लिया गया। इस खबर से भारतीयों में रोष की भावना प्रबल हो गई। मुंबई, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, असम, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांतों के लोग ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार हो गए।

करो या मरो – गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत करते हुए कहा कि संपूर्ण आजादी से कम किसी भी चीज से मैं संतुष्ट होने वाला नहीं। उन्होंने ‘करो या मरो’ का नारा देते हुए कहा ‘एक छोटा सा मंत्र है जो मैं आपको देता हूं, उसे आप अपने हृदय में अंकित कर सकते हैं और अपनी हर सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं वह मंत्र है ‘करो या मरो’, या तो हम भारत को आजाद कराएंगे या इस कोशिश में अपनी जान दे देंगे।’

जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली एवं राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने भूमिगत रहकर इस आंदोलन का संचालन किया। इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन में वकीलों, अध्यापकों, व्यापारियों, डॉक्टरों, पत्रकारों, मजदूरों, विद्यार्थियों व स्त्रियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। विभिन्न नगरों में सभाएँ की गई एवं जुलूस निकाले गए। लोगों ने हिंसा का उत्तर हिंसा से दिया। कई सरकारी भवनों व पुलिस थानों को जला दिया गया, तार की लाइनें काट दी गई।

अंग्रेजी सरकार का दमनचक्र – अंग्रेजी सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए दमन की नीति का सहारा लिया। सरकार ने शांतिपूर्ण जुलूसों पर गोलियाँ चलाई व लाठीचार्ज किया। सरकारी सूत्रों के अनुसार 538 अवसरों पर निहत्थे लोगों पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई। एक लाख से अधिक स्त्री-पुरुषों को बंदी बना लिया गया। प्रदर्शनकारियों पर भारी जुर्माने किए गए, देश में चारों ओर अराजकता और अशांति फैल गई। गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के आरोपों से दुखी होकर 10 फरवरी, 1943 ई. को 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया। सरकार की दमन नीति के कारण आंदोलन काफी शिथिल पड़ चुका था। गांधी जी को रिहा कर दिया और भारत छोड़ो आंदोलन धीरे-धीरे समाप्त हो गया। इस आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है।

गांधी- जिन्ना वार्ता –

भारत छोड़ो आंदोलन के बाद मई 1944 ई. में गांधी जी को जेल से रिहा कर दिया गया। तत्पश्चात् गांधी जी ने विभाजन को टालने तथा मोहम्मद अली जिन्ना को मनाने के लिए 9 सितंबर से 27 सितंबर, 1944 ई. के बीच कई दौर की बातचीत की। इस गांधी- जिन्ना वार्ता में गांधी जी जिन्ना के लिए ‘कायदे आज़म’ का सम्बोधन करते रहे, जिससे जिन्ना और अधिक अहंकारी हो गये।

जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग को मनवाने के लिए 16 अगस्त, 1946 ई. को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ घोषित किया। जिससे बंगाल, बिहार और बंबई में दंगे हुए, जिसमें 5 हजार लोग मारे गए तथा 15 हजार लोग घायल हुए। देश के तनावपूर्ण व रक्त-रंजित वातावरण में 20 फरवरी, 1947 ई. के दिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर क्लेमेंट एटली ने एक महत्वपूर्ण घोषणा कर दी कि ब्रिटिश सरकार जून 1948 ई. तक भारतीयों को सत्ता सौंप कर चली जाएगी। अतः इस निश्चित तिथि तक भारत के सभी राजनीतिक दल परस्पर समझौता कर लें और एक संविधान का निर्माण करें जिसके अनुसार संगठित सरकार को सत्ता सौंपी जा सके। इस घोषणा से मुस्लिम लीग को पाकिस्तान की मांग के लिए प्रोत्साहन मिला और हिंदुओं व मुसलमानों में शत्रुता इतनी बढ़ गई कि में बंगाल, उत्तर-पश्चिमी पंजाब में साम्प्रदायिक दंगे आरंभ हो गए। उधर अंतिम निर्णय के लिए लॉर्ड वेवल के स्थान पर गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजा गया।

भारत की स्वतंत्रता –

लार्ड वेवल के बाद माउंटबेटन 23 मार्च, 1947 ई. को भारत के वायसराय नियुक्त हुए। उन्हें ब्रिटिश सरकार का आदेश था कि 30 जून, 1948 ई. तक भारतीयों के हाथों में सत्ता का हस्तांतरण करा दें। उन्हें वायसराय बनाने का मुख्य उद्देश्य शीघ्र अति शीघ्र भारत का विभाजन करना था। सभी नेताओं व राजनीतिक दलों के साथ बातचीत करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत का विभाजन आवश्यक है। माउंटबेटन ने पंडित नेहरू को इस बात के लिए मना लिया। तत्पश्चात् 3 जून, 1947 ई. को उन्होंने एक योजना प्रस्तावित की जिसे कांग्रेस, मुस्लिम लीग, और सिक्ख समुदाय के नेताओं ने स्वीकृति दे दी। गांधी जी विभाजन के विरोधी थे तथा उन्होंने कहा भी था कि ‘विभाजन मेरी लाश पर होगा।’ लेकिन रक्तपात, दंगों तथा कांग्रेस के नेताओं की थकान को देखते हुए उन्होंने भी विभाजन को अनमने ढंग से स्वीकार कर लिया।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग से विभाजन की योजना को स्वीकृति मिल जाने के पश्चात् माउंटबेटन ने विभाजन को लागू करने के लिए 7 जून, 1947 ई. को एक ‘विभाजन समिति’ का निर्माण किया। माउंटबेटन योजना के अनुसार 4 जुलाई, 1947 ई. के दिन ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम नामक एक बिल पास किया जिससे भारत को विभाजन के साथ स्वंतत्रता की प्राप्ति हुई।

स्वतंत्रता के बाद महात्मा गांधी –

विभाजन के बाद हुए दंगों में महात्मा गांधी ने अकेले पूर्वी भारत में उपस्थित रहकर सांप्रदायिक दंगों को रोका। तत्कालीन वायसराय माउंटबेटन ने उनको ‘वन मैन बाउंडरी फोर्स’ कहा।

राष्ट्र भाषा का प्रश्न – महात्मा गांधी जी राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी का समर्थन और सम्मान करते थे उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत में लोगों को विदेशी (अंग्रेजी) भाषा की जगह अपनी राष्ट्र भाषा (हिंदी) को सम्मान देना चाहिए।

लोक सेवा संघ – स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस में व्याप्त भ्रष्टाचार से आहत होकर गांधी जी ने ऑल इंडिया स्पीनर एसोसिएशन, हरिजन सेवक संघ, ग्राम उद्योग संघ, गौ सेवा संघ एवं नई तालीमी संघ जैसे संगठनों के मुख्य प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया तथा सम्मेलन के बाद कांग्रेस का उद्देश्य पूरा हो जाने के कारण कांग्रेस को समाप्त करने तथा उसके स्थान पर लोक सेवा संघ बनाने की योजना बनाई, लेकिन ऐसा करने से पूर्व ही उनकी हत्या हो गई।

महत्वपूर्ण तिथियां :-

  1. महात्मा गांधी का जन्म – 2 अक्टूबर, 1869 ई.

  2. गांधी जी दक्षिणी अफ्रीका से भारत लौटे – 1915 ई.

  3. रौलट एक्ट पास हुआ – 1919 ई.

  4. जलियाँवाला बाग नरसंहार हुआ – 1919 ई.

  5. दांडी यात्रा – 6 अप्रैल, 1930 ई.

  6. गांधी- इर्विन समझौता – 5 मार्च, 1931 ई.

  7. सांप्रदायिक पंचाट – 16 अगस्त, 1932 ई.

  8. व्यक्तिगत सत्याग्रह – 1940 ई.

  9. भारत छोड़ो आंदोलन प्रस्ताव – 8 अगस्त, 1942 ई.

  10. गांधी- जिन्ना वार्ता – 1944 ई.

  11. मुस्लिम लीग का प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस – 16 अगस्त, 1946 ई.

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