माता का आदर्श Class 9 नैतिक शिक्षा Chapter 16 Explain HBSE Solution

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HBSE Class 9 Naitik Siksha Chapter 16 माता का आदर्श / Mata ka Aadarsh Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 9th Book Solution.

माता का आदर्श Class 9 Naitik Siksha Chapter 16 Explain


प्राचीन काल में विदुला नाम की एक अत्यन्त बुद्धिमती एवं तेजस्विनी क्षत्राणी थी। उनका पुत्र संजय युद्ध में शत्रु से पराजित हो गया था। पराजय ने उसका साहस तोड़ दिया। वह निराश होकर घर में पड़ा रहा। अपने पुत्र को निठल्ला पड़ा देखकर विदुला उसे फटकारने लगी- अरे कायर! तू मेरा पुत्र नहीं है। तू कुलकलंकी, वीरों के द्वारा प्रशंसित इस कुल में क्यों उत्पन्न हुआ? तू डरपोकों की भाँति पड़ा है। यदि तेरी भुजाओं में शक्ति है तो शस्त्र उठा और शत्रु का नाश कर । कायर लोग थोड़े में ही सन्तुष्ट हो जाते हैं परन्तु तू तो क्षत्रिय है । महत्ता प्राप्त करने के लिए ही मैंने तुझे जन्म दिया है । उठ ! युद्ध के लिए प्रस्तुत हो ।

पुत्र ! तेरे लिए विजय प्राप्त करना उचित है अन्यथा तू युद्ध में प्राण त्यागकर योगियों के लिए भी दुर्लभ परम पद प्राप्त कर ले। क्षत्रिय रोग से शय्या पर पड़े-पड़े प्राण त्यागने को उत्पन्न नहीं होता। युद्ध क्षत्रिय का धर्म है। धर्म से विमुख होकर तू क्यों जीवित रहना चाहता है? तू कायर बनकर धर्म की राह छोड़ रहा है। तेरे कारण कुल डूब रहा है, उसका उद्धार कर। साहसी बनकर पराक्रम दिखा।

समाज में जिसके महत्त्व की चर्चा नहीं होती या उत्तम पुरुष जिसे सत्कार के योग्य नहीं मानते, वह गणना बढ़ाने वाला पृथ्वी का व्यर्थ भार है। दान, सत्य, तप, विद्या और शान में से किसी क्षेत्र में जिसको यश नहीं मिला, वह तो मिट्टी के लौंदे के समान है। पुरुष वही है, जो शास्त्रों के अध्ययन, शस्त्रों के प्रयोग, तप अथवा ज्ञान में श्रेष्ठता प्राप्त करे । कायरों तथा मूर्खों के समान भीख माँगकर जीविका चलाना तेरे योग्य कार्य नहीं है। लोगों के अनादर का पात्र होकर, भोजन, वस्त्र के लिए दूसरों का मुख ताकने वाले तो बन्धुवर्ग को भी शूल की भाँति चुभते हैं।

हाय! ऐसा लगता है कि हमें राज्य से निर्वासित होकर कंगाल दशा में मरना पड़ेगा। तू कुल का कलंकी है। अपने कुल के अयोग्य काम करने वाला है । तुझे जन्म देने के कारण मैं भी अपयश की भागिनी बनी हूँ। मेरा मन कहता है कि कोई भी नारी तेरे समान उत्साहहीन पुत्र उत्पन्न न करे। वीर पुरुष के लिए शत्रुओं के मस्तक पर क्षण भर प्रज्वलित होकर बुझ जाना भी श्रेयस्कर है। जो आलसी है, वह कभी महत्त्व नहीं पाता। इसलिए अब तू भी पराजय की ग्लानि त्याग कर परिश्रमपूर्वक प्रयास कर ।

निराश संजय यह सब सुनता रहा। वह माँ के सामने कुछ भी नहीं बोल पाया।

यह देखकर विदुला बोली- मैं चाहती हूँ कि तेरे शत्रु पराजय, कंगाली और दुःख के भागी बनें और तेरे मित्र आदर तथा सुख प्राप्त करें। तू पराए अन्न से पलने वाले दीन पुरुषों-सा मत बन। साधुजन और मित्रगण तेरे आश्रय में रहकर तुझसे जीविका प्राप्त करें, ऐसा प्रयत्न कर। पके फलों से लदे वृक्ष के समान, लोग जीविका के लिए जिसका आश्रय लेते हैं, उसी का जीवन सार्थक है

पुत्र, स्मरण रख कि यदि तू मेहनत का पथ छोड़ देगा तो शीघ्र ही तुझे नीच लोगों का मार्ग अपनाना पड़ेगा। तेरे शत्रु इस समय प्रबल हैं, किन्तु तुझमें उत्साह हो और तू मेहनत करे तो उनके शत्रु तुझसे आ मिलेंगे। तेरे हितैषी भी तेरे पास एकत्र होने लगेंगे। बन्द पड़े सब रास्ते स्वतः खुल जाएँगे । तेरा नाम संजय है, किन्तु जय पाने का कोई लक्षण तुझमें नहीं दीख पड़ता । तू अपने नाम को सार्थक कर ।

पुत्र ! हार हो या जीत, राज्य मिले या न मिले, दोनों को समान समझकर तू दृढ़ संकल्पपूर्वक युद्ध कर । जय-पराजय तो काल के प्रभाव से सबको प्राप्त होती है, किन्तु उत्तम पुरुष वही है, जो कभी निराश नहीं होता। संजय ! मैं श्रेष्ठ कुल की कन्या हूँ, श्रेष्ठ कुल की पुत्रवधू हूँ और श्रेष्ठ पुरुष की पत्नी हूँ । यदि मैं तुझे गौरव बढ़ाने योग्य उत्तम कार्य करते नहीं देखूँगी तो मुझे शान्ति कैसे मिलेगी! कायर की माता कहलाने की अपेक्षा तो मेरा मर जाना ही उत्तम है। यदि तू जीवित रहना चाहता है तो शत्रु को पराजित करने का प्रयत्न कर। अन्यथा सदा के लिए पराश्रित दीन रहने की अपेक्षा तेरा मर जाना बेहतर है।

माता के इस प्रकार ललकार भरने पर भी संजय ने कहा- माता! तू करुणाहीन व पत्थर दिलवाली है। मैं तेरा एकमात्र पुत्र हूँ । यदि मैं युद्ध में मारा गया तो तू राज्य और धन लेकर कौन-सा सुख पाएगी कि मुझे युद्ध भूमि में भेजना चाहती है?

विदुला ने कहा- बेटा! मनुष्य को धर्म और अर्थ के लिए प्रयत्न करना चाहिए। मैं उसी धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिए तुझे युद्ध में भेज रही हूँ । यदि तू शत्रु द्वारा मारा गया तो यश प्राप्त करेगा – मुक्त हो जाएगा और यदि विजयी हुआ तो संसार में सुखपूर्वक राज्य करेगा। गीता में कृष्ण ने भी अर्जुन को यही सीख प्रदान की थी- ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।’ अर्थात् तू युद्ध में मारा जाकर या तो स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा युद्ध में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा।

कर्तव्य से विमुख होने पर समाज में तेरा अपमान होगा। मैं मोहवश तुझे इस अनिष्ट से न रोकूँ तो वह मातृ स्नेह का अपमान होगा। तू कर्मपथ छोड़कर लोक में अपमान सहे और मरने पर कर्तव्यभ्रष्ट लोगों की अधम गति पाए, ऐसे मार्ग पर मैं तुझे नहीं जाने दूँगी। इसलिए सज्जनों द्वारा निन्दित कायरता के मार्ग को तू छोड़ दे। जो माता सदाचारी, परिश्रमी, विनीत पुत्र पर स्नेह प्रकट करे, उसी का स्नेह सच्चा है। श्रम, विनय तथा सदाचरण से रहित पुत्र पर स्नेह करना व्यर्थ है । शत्रु को विजय करने या युद्ध में प्राण देने के लिए क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है। तू अपने जन्म को सार्थक कर ।

माता के इस प्रकार वचन सुनकर संजय का सोया शौर्य जागृत हो गया। उसका उत्साह सजीव हो उठा। उसने माता की आज्ञा स्वीकार की। भय और उदासी को तजकर वह सैन्य-संग्रह में जुट गया। अन्त में शत्रु को पराजित करके उसने अपने खोए हुए राज्य पर अधिकार कर सम्मान प्राप्त किया।


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