मौर्य साम्राज्य Class 6 इतिहास Chapter 6 Notes – हमारा भारत I HBSE Solution

Class 6 इतिहास NCERT Solution for chapter 6 मौर्य साम्राज्य notes for Haryana board. CCL Chapter Provide Class 1th to 12th all Subjects Solution With Notes, Question Answer, Summary and Important Questions. Class 6 History mcq, summary, Important Question Answer, Textual Question Answer in hindi are available of  हमारा भारत II Book for HBSE.

Also Read – HBSE Class 6 इतिहास – हमारा भारत I NCERT Solution

Also Read – HBSE Class 6 इतिहास – हमारा भारत I Solution in videos

HBSE Class 6 इतिहास / History in hindi मौर्य साम्राज्य / maurya samrajya notes for Haryana Board of chapter 6 in Hamara Bharat 1 Solution.

मौर्य साम्राज्य Class 6 इतिहास Chapter 6 Notes


साम्राज्य एक बहुत ही विशाल क्षेत्र होता है, जहां सम्राट के पास समस्त अधिकार होते हैं। यह सम्पूर्ण क्षेत्र एक ही राजनीतिक इकाई का अंग होता है। यह किसी एक राजा अथवा उसके अधीन कुछ मुख्य अधिपतियों द्वारा साझेदारी में संभाला जाता है। इसका उद्देश्य सम्पूर्ण क्षेत्र को एक ही प्रशासनिक ढांचे के अन्तर्गत रखना होता है। साम्राज्य छोटे समय के अन्तराल में भी हो सकता है। परन्तु सामान्यत: वह पीढ़ी दर पीढ़ी कई सदियों तक चलता है।

भारत का राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ है। यह सम्राट अशोक के सारनाथ के स्तंभ लेख से लिया गया है। इसके फलक पर चार सिंह चारों दिशाओं की ओर मुंह किये हुए दृढ़तापूर्वक बैठे हैं। इनसे सम्राट अशोक के चारों दिशाओं में राज्य तथा धर्म प्रचार की सूचना मिलती है। अशोक मौर्य साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण शासक था। इस साम्राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी।

मौर्य इतिहास के स्त्रोत

साहित्यिक

देशी

  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र
  • विशाखदत्त का मुद्राराक्षस
  • सोमदेवकृत कथासरितसागर
  • क्षेमेन्द्र की वृहत्कथामंजरी
  • पुराण

विदेशी

  • मेगस्थनीज की इंडिका

अन्य

  • बौद्ध ग्रंथ- दीपवंश, महावंश, दिव्यावदान
  • जैन ग्रंथ- भद्रबाहु का कल्पसूत्र तथा हेमचन्द्र का परिशिष्टपर्व

पुरातात्विक

  • अशोक के अभिलेख
  • रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख

भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य

मौर्य साम्राज्य भारत का सबसे बड़ा एवं शक्तिशाली साम्राज्य था। चन्द्रगुप्त ने लगभग 322 ई.पू. में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। इस साम्राज्य का अस्तित्व मौर्य वंश के कई योग्य उत्तराधिकारियों के बल पर लगभग 184 ई.पू. तक बना रहा।

कौटिल्य और उसका अर्थशास्त्र

मौर्य काल के साहित्यिक स्रोतों में कौटिल्य का अर्थशास्त्र सबसे महत्वपूर्ण है।

  • चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन निर्माण में कौटिल्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वह इतिहास में विष्णुगुप्त, चाणक्य तथा कौटिल्य के नाम से जाना जाता है।
  • वह तक्षशिला में पैदा हुआ।
  • यहीं उसने शिक्षा ग्रहण की और इसी शिक्षा केन्द्र का प्रमुख आचार्य बना। एक बार नन्दराजा ने अपनी यज्ञशाला में उसे अपमानित किया था। इस कारण क्रोध में आकर उसने नन्द वंश को समूल नष्ट कर डालने की प्रतिज्ञा कर डाली।
  • कौटिल्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की।

राजनीति पर आधारित यह पुस्तक मूल रूप से संस्कृत भाषा में लिखी गई है।

पुरुषार्थ के अन्य तीनों अंग अर्थ पर ही आश्रित माने गये हैं।

अर्थ की व्याख्या जीवन निर्वाह के साधन के रूप में की गयी है। इसका स्रोत सम्पूर्ण धरती और उस पर निवास करने वाले लोग बताये गये हैं।

अर्थशास्त्र धरती को अर्जित करने तथा उसे सुरक्षित रखने के साधनों की विवेचना करता है।

इस परिभाषा के अंतर्गत अर्थशास्त्र राज्य का विज्ञान है। यह विज्ञान अर्थ अर्थात् जीविकोपार्जन के साधनों पर राज्य के नियंत्रण के सिद्धांत की बात करता है।

सम्पूर्ण अर्थशास्त्र 15 अधिकरण अर्थात् भागों एवं 180 प्रकरणों में विभक्त है। इसमें 6000 श्लोक हैं।

पुस्तक की पाण्डुलिपि की एक प्रति तंजौर के एक पण्डित ने सन् 1905 में पुस्तकालयाध्यक्ष आर. शामशास्त्री को भेंट की थी।

अर्थशास्त्र में निहित विषय

अर्थशास्त्र के संपूर्ण अध्ययन में एक शक्तिशाली राज्य के महत्व को दर्शाया गया है। किसी भी योग्य शासक के लिये यह ग्रंथ एक पथ प्रदर्शक का कार्य करता है। कौटिल्य के अनुसार :

  • राजा को शक्तिशाली एवं स्वेच्छा से कार्य करने वाला होना चाहिये।
  • राजा को प्रजा के हित में अपना हित समझना चाहिये। राजा को काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, उद्दण्डता और विलास से बचना चाहिये।
  • राजा को अपने मंत्रियों का चुनाव उनकी विद्वता के आधार पर करना चाहिये। अपने सारे कार्य राजा को इनसे छिपकर करने चाहिये।
  • अपने मंत्रियों की कार्यप्रणाली को गुप्तचरों द्वारा जांचते रहना चाहिये। इसलिए राजा को अपने राज्य के हर क्षेत्र में गुप्तचर नियुक्त करने चाहिए। अन्य देशों में भी गुप्तचरों को नियुक्त करने की सलाह कौटिल्य ने दी है।
  • कौटिल्य के अनुसार राज्य की स्थिरता आन्तरिक शांति पर निर्भर करती हैं।
  • यदि प्रजा के पास खाने-पीने की वस्तुओं का अभाव हो तो जनता निश्चित तौर पर विद्रोह करती है। अतः राजा को प्रजाहित के कार्य करते रहना चाहिए।
  • विदेश नीति के बारे में कौटिल्य का मत आक्रामक प्रकार का है। उनका कहना है कि दुश्मन का दुश्मन आपका मित्र होगा। इसी तरह से दुश्मन का मित्र आपका दुश्मन होगा। इस नीति के अन्तर्गत कौटिल्य शक्ति संतुलन के सिद्धांत को स्पष्ट करते हैं।
  • इस प्रकार शासन-प्रणाली के सभी सिद्धातों को अर्थशास्त्र में देखा जा सकता है।

चन्द्रगुप्त मौर्य – प्रारंभिक जीवन एवं विजयाभियान

प्रारंभिक जीवन –

चन्द्रगुप्त के जन्म के विषय में विद्वानों के अनेक मत है परन्तु सभी इस मत से सहमत है कि उसका बचपन कठिनाई में बीता था। बाल्यकाल में वह बालकों की मण्डली का राजा बनकर उनके झगड़ों के फैसले करता था। एक दिन जब वह इस ‘राजकीलम’ नामक खेल में व्यस्त था तभी चाणक्य वहां से गुजर रहे थे। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से चाणक्य ने इस बालक के भावी गुणों का अनुमान लगा लिया। वह उसे तक्षशिला ले गया। वहां उसे अपने उद्देश्य के अनुकूल उचित शिक्षा दी गयी।

  • राजकीलम : एक प्रकार का खेल, इस खेल में चन्द्रगुप्त बालकों की मंडली का राजा बनकर उनके आपसी झगड़ों का फैसला करता था।

326 ई.पू. में यूनानी आक्रांता सिकंदर ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण किया। भारत में इस समय नन्द शासक धनानन्द का शासन था। आन्तरिक अशांति के साथ-साथ देश की सीमाएं भी असुरक्षित थी। अतः सिकंदर को भारतीय सीमा पर किसी खास विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।

वह आगे बढ़ता हुआ सिंधु नदी पार करके भारत की मुख्य भूमि में प्रवेश कर गया। इससे आगे झेलम तथा चिनाब नदी के मध्यवर्ती प्रदेश का शासक पोरस था। पोरस बहुत ही स्वाभिमानी तथा मातृभूमि भक्त शासक था। सिकंदर ने उससे आत्मसमर्पण करने की मांग की। स्वाभिमानी पोरस महान ने कहला भेजा कि वह उसके दर्शन रणक्षेत्र में ही करेगा। यह सिकंदर के लिये खुली चुनौती थी। दोनों पक्ष की सेनाएं झेलम नदी के दोनों किनारों पर आ डटी ।

भीषण वर्षा के बीच धोखे से सिकंदर की सेना ने आक्रमण कर दिया। जमीन दलदली हो जाने के कारण विशाल रथ मिट्टी में धंसने लगे। अतः पोरस की सेना का मुख्य भाग कोई खास भूमिका नहीं निभा पाया। लेकिन युद्ध का मंजर इतना भयानक था कि सिकंदर की सेना को सबक मिल चुका था। इसी कारण सिकंदर के बहुत समझाने के बाद भी उसके सैनिक भारत में आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं हुऐ। परिणामस्वरूप विश्व विजय का अधूरा सपना लेकर सिकंदर को 325 ई.पू. में वापस अपने देश लौटना पड़ा।

चन्द्रगुप्त मौर्य का विजयाभियान –

चन्द्रगुप्त मौर्य ने प्रथम आक्रमण मगध पर किया । यह प्रयास असफल रहा। कहा जाता है कि मगध अभियान में असफल होने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य और उसके प्रधानमंत्री कौटिल्य को एक गांव में ठहरने का मौका मिला। वहां उन्होंने देखा कि एक बुढ़िया अपने बच्चे को थाली के बीच से खिचड़ी उठाने से डांट रही थी। बुढ़िया ने बच्चे से कहा कि बीच का हिस्सा किनारों से कहीं अधिक गर्म होता है। इससे उन्हें एक सबक मिला। अब उन्होंने मगध साम्राज्य के बीच की अपेक्षा बाहरी क्षेत्रों पर आक्रमण शुरु किया।

पंजाब एवं सिंध विजय

325 ई.पू. में सिकंदर के भारत से जाने के साथ ही सिंध तथा पंजाब में विद्रोह उठ खड़े हुए। वहां अनेक यूनानी क्षत्रिय मौत के घाट उत्तार दिये गये। 325 ई.पू. के अन्त में इस क्षेत्र के प्रमुख क्षत्रप फिलिप द्वितीय की भी हत्या कर दी गयी। इससे पंजाब व सिंध में सिकंदर द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचा भी ढहने लगा। यूनानी इतिहासकार जस्टिन इन सब घटनाओं में चंद्रगुप्त का हाथ बताता है। इन घटनाओं के बाद चन्द्रगुप्त ने एक सेना एकत्र कर स्वयं को राजा बनाया। अब उसने सिकंदर के बचे हुऐ क्षत्रपों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया। अंतिम मेसीडोनियन क्षत्रप यूडेमस ने 317 ई.पू. में बिना लड़े भारत छोड़ दिया। अब चन्द्रगुप्त सिंध व पंजाब का एकछत्र शासक था।

नंदों का उन्मूलन

सिंध तथा पंजाब के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य मगध साम्राज्य की ओर बढ़े। मगध में इस समय धनानन्द का शासन था। अपने असीम सैनिक साधनों तथा सम्पत्ति के बावजूद भी वह जनता में अलोकप्रिय था। उसने एक बार चाणक्य को भी अपमानित किया था। इसी अपमान का बदला लेने के लिए कौटिल्य ने नन्दों को समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा की थी। अब उनके पास अपनी एक विशाल संगठित सेना थी। जिसका उपयोग उसने नन्दों के विरुद्ध किया।

चन्द्रगुप्त मौर्य की सैनिक शक्ति नन्द राजा के मुकाबले बहुत कम थी। यही एक ऐसा बिन्दु था जहां कौटिल्य की कूटनीति उपयोगी सिद्ध हुई। इस नीति के अन्तर्गत सर्वप्रथम उन्होने साम्राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। हिमालय क्षेत्र में वे प्रर्वतक नामक शासक से सहायक लेकर आगे बढ़े। इसके बाद गंगा – युमना दोआब क्षेत्र के राज्यों पर विजय प्राप्त की। प्रवर्तक के साथ मिलकर बनाई गयी इसी संयुक्त सेना ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया। धनानंद का वध कर दिया गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ई.पू. में मगध साम्राज्य की गद्दी पर बैठा और भारत के विस्तृत साम्राज्य का शासक बन गया।

सैल्यूकस पर विजय

सिकंदर की मृत्यु के पश्चात् उसके पूर्वी प्रदेशों का उत्तराधिकारी सैल्यूकस हुआ। बेबीलोन और बैक्ट्रिया को जीतने के बाद वह भारत में सिकंदर के जीते हुऐ क्षेत्रों पर दावा करने लगा। इस उद्देश्य से उसने भारत पर चढ़ाई की।

चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना यहां उसका सामना करने के लिए आतुर थी। 305 ई.पू. में सिंधु नदी के तट पर दोनों की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। सैल्यूकस पराजित हुआ और एक संधि के अनुसार उसे अपनी लड़की हेलेना की शादी चंद्रगुप्त मौर्य से करनी पड़ी। यह निश्चय ही चन्द्रगुप्त की एक महत्वपूर्ण सफलता थी। इससे उसका साम्राज्य पारसीक साम्राज्य की सीमा को स्पर्श करने लगा।

पश्चिमी भारत में साम्राज्य का विस्तार

शक शासक रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख से पश्चिमी भारत में चन्द्रगुप्त की विजय का पता चलता है। चन्द्रगुप्त ने बिना किसी बड़े विरोध के सौराष्ट्र के क्षेत्र को जीत लिया था। इस प्रदेश में पुष्यगुप्त वैश्य को राज्यपाल बनाया गया। इसने यहां सुदर्शन झील का निर्माण करवाया। इस झील को कृषि सिंचाई के लिये प्रयुक्त किया गया। सौराष्ट्र के दक्षिण में सोपारा तक का प्रदेश भी चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा विजित किया गया। इसकी राजधानी उज्जैन बनाई गयी।

अभिलेख : किसी कठोर सतह पर उत्कीर्णित पठन सामग्री

दक्षिण भारत की विजय

तमिल लेखक ‘मामूलनार’ ने लिखा है कि मोरियर (मौर्य) नामक शासक ने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया। यूनानी लेखक ‘प्लूटार्क’ लिखते हैं कि वह 6 लाख की विशाल सेना के साथ दिग्विजय के लिये निकला तथा मदुरा तथा तिनेवेली तक पहुंच गया। ‘जैन ग्रंथ’ बताते है कि वृद्धावस्था में चन्द्रगुप्त श्रवणवेलगोला (कर्नाटक) में आकर तपस्या करने लगा। इन तथ्यों से माना जा सकता है कि यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का ही अंग था।

इस प्रकार कौटिल्य का राष्ट्र निर्माण का कार्य चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा सम्पूर्ण किया गया। चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में ईरान की सीमा से दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत था। पूर्व में यह ब्रह्मपुत्र के मुहाने से लेकर पश्चिम में कच्छ की खाड़ी तक फैला था। हिन्दुकुश पर्वत इस साम्राज्य की वह वैज्ञानिक सीमा थी, जिसे बाद में मुगल तथा अंग्रेज शासक भी प्राप्त करने के लिये असफल प्रयास करते रहे। पाटलिपुत्र इस साम्राज्य की राजधानी थी. जिस पर 298 ई.पू. में अपनी मृत्यु तक चन्द्रगुप्त ने शासन किया।

बिंदुसार (298-273 ई.पू.)

चन्द्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बिंदुसार 298 ई.पू. में शासक बना। यूनानी इतिहासकार उन्हें अमित्रघात (शत्रुओं का नाश करने वाला) बताते हैं। वायु पुराण में बिंदुसार का नाम भद्रसार मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य की तरह बिंदुसार ने भी साम्राज्य का विस्तार किया। उसने कौटिल्य के कहने पर 6 राजधानियों के राजाओं और अमात्यों का नाश किया। एक लम्बे युद्ध के बाद पूर्वी व पश्चिमी समुद्रों के बीच की सम्पूर्ण भूमि पर भी अधिकार कर लिया।

उनके समय में तक्षशिला में दो बार विद्रोह हुआ। इस विद्रोह को दबाने के लिये राजकुमार अशोक को भेजा गया। अशोक ने इस विद्रोह को शान्त कर दिया। बिंदुसार के समय ही सैल्यूकस के उत्तराधिकारी एण्टिओक्स ने अपना एक राजदूत बिंदुसार के राज्य में भेजा था। यह मेगस्थनीज के स्थान पर आया था। इसी तरह से मिस्त्र राजा टालमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने डाइनोसियस नामक एक राजदूत इसके दरबार में भेजा। इन राजदूतों से की जाने वाली संधियों से पता चलता है कि बिंदुसार के समय भारत का पश्चिमी एशिया से व्यापारिक संबंध बहुत अच्छा रहा था। 273 ई.पू. में बिंदुसार की मृत्यु हुई।

अशोक प्रियदर्शी (269-232 ई.पू.)

बिंदुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका सुयोग्य पुत्र अशोक मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। अशोक अपने पिता के शासनकाल में उज्जैन का राज्यपाल था। बिंदुसार की बीमारी का समाचार सुनकर वह पाटलिपुत्र आया। बिंदुसार के सोलह पत्नियों से 101 पुत्र थे। इस कारण उत्तराधिकार के लिये अशोक को अपने भाइयों से संघर्ष करना पड़ा। चार वर्षो के संघर्ष के पश्चात् 269 ई. पू. में अशोक का राज्याभिषेक हुआ। इस अवसर पर उसने देवानाम प्रिय तथा प्रियदर्शी की उपाधियां धारण की। अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी था। वह एक ब्राह्मण की कन्या थी। अशोक की शिक्षा-दीक्षा अपने सगे भाइयों के साथ ही हुई थी। उसकी प्रतिभा, योग्यता और बुद्धि अपने सभी भाइयों से अलग थी। वह पहले उज्जैन तथा बाद में तक्षशिला का कुमार (राज्यपाल) बना।

कलिंग युद्ध तथा उसके परिणाम

अशोक को पिता से एक विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष तक अपने पूर्वजों की तरह साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। लेकिन अशोक के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण विजय 261 ई. पू. में कलिंग राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाना थी। क्योंकि कलिंग मगध साम्राज्य की सम्प्रभुता को चुनौती दे रहा था। कलिंग युद्ध में एक लाख लोग मारे गये तथा एक लाख पचास हजार लोग बन्दी बना लिये गये। इस युद्ध में लगभग दो लाख पचास हजार से अधिक लोग घायल भी हुए। कलिंग को विजित कर तोशाली इसकी राजधानी बनाई गयी। मौर्य साम्राज्य की पूर्वी सीमा बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत हो गयी। यह कलिंग युद्ध का तात्कालिक लाभ था । कलिंग युद्ध में हुई हृदय विदारक हिंसा एवं नरसंहार की घटनाओं ने अशोक के हृदय को स्पर्श किया। इसके दूरगामी परिणाम हुए। उसने युद्ध नीति छोड़ दी व बौद्ध बन गया।

कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार सबसे पहले अशोक ने कश्मीर पर विजय प्राप्त की और श्रीनगर शहर की स्थापना की।

अशोक के धम्म की शिक्षाएं —

  • सद्गुण में अहिंसा का पालन करना।
  • बड़ों का आदर करना व छोटो से प्रेम करना।
  • सच्चे रीति-रिवाजों को मानना व कर्म के सिद्धांत में विश्वास करना।
  • दान देना व पवित्र जीवन जीना।
  • धार्मिक सहनशीलता को अपनाते हुए धर्म यात्राएं करना।

धम्म प्रचार के उपाय –

  • धर्म यात्रा को प्रारंभ किया
  • धर्मोपदेशों की व्यवस्था
  • धर्म-महामात्रो की नियुक्ति
  • राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति
  • दिव्य रूपों का प्रदर्शन
  • जन उपकार के कार्य
  • धर्मोपदेशों को पत्थरों पर खुदवाना
  • विदेशों में धर्म प्रचारक भेजना ( जैसे श्रीलंका में अपनी पुत्री संघमित्रा व पुत्र महेंद्र को भेजा )

साम्राज्य विस्तार

अशोक के अनेक अभिलेखों पर उसके राज्यादेश उत्कीर्णित करवाये गये हैं। इन अभिलेखों के प्राप्ति स्थलों के आधार पर उस के साम्राज्य की सीमा का पता चलता है। ये अभिलेख इस प्रकार हैं :

चौदह शिलालेख : शाहबाजगढ़ी (पेशावर) तथा मानसेहरा (हजारा, पाकिस्तान), कालसी (उ. प्र.), धौली, जौगदा (उड़ीसा), इरागुडी (आन्धप्रदेश) आदि।

सात स्तम्भ लेख : टोपरा (हरियाणा), प्रयागराज, लौरिया-नन्दनगढ़ (बिहार), सांची (मध्य प्रदेश) सारनाथ, रूम्मिनदेई तथा निग्लिवासागर (नेपाल की तराई में)। स्तंभ लेखों में सारनाथ के स्तंभ का सिंह शीर्ष सर्वोत्कृष्ट है। इसके फलक पर चार सजीव सिंह पीठ से पीठ सटाये हुए तथा चारों दिशाओं की ओर मुंह किये दृढ़तापूर्वक बैठे हैं। ये चक्रवर्ती सम्राट अशोक की शक्ति के प्रतीक हैं। इनसे चारों दिशाओं में उसके राज्य तथा धर्म के प्रचार की सूचना मिलती है।

लघु शिलालेख : सहसराम (बिहार), बैराट (राजस्थान) जटिंग रामेश्वर (कर्नाटक) आदि।

गुफा लेख : ये संख्या में तीन हैं, जो बिहार की बराबर नामक पहाड़ी की गुफाओं में उत्कीर्ण मिले हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि अशोक का साम्राज्य एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था। उसका साम्राज्य पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था । उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कर्नाटक तक फैला हुआ था।

मौर्य साम्राज्य का पतन

232 ई.पू. में सम्राट अशोक की मृत्यु के साथ ही साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। उसके उत्तराधिकारी अयोग्य सिद्ध हुए। इस वंश का अंतिम शासक बृहद्रथ था बृहद्रथ को उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. में मौत के घाट उतार दिया। बृहद्रथ के बाद साम्राज्य का पतन हो गया। मौर्य साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे :

  • अशोक के उत्तराधिकारियों का दुर्बल होना।
  • वित्तीय संकट का होना।
  • साम्राज्य की विशालता।
  • उत्तराधिकार के नियम का अभाव होना।
  • प्रांतीय अधिकारियों के अत्याचार ।
  • विदेशी आक्रमण |
  • साम्राज्य का विभाजन।

मौर्य युगीन संस्कृति

मौर्य काल में देश में प्रथम बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई। इससे राजनीतिक एकता और सुदृढ़ता का वातावरण तैयार हुआ। इस वातावरण में भौतिक एवं सांस्कृतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त हुआ।

प्रशासन

मौर्य शासन व्यवस्था का जनक चन्द्रगुप्त मौर्य था। इस व्यवस्था सम्राट अशोक के समय आवश्यकतानुसार सुधार भी हुए। मौर्य शासन व्यवस्था का उद्देश्य हर परिस्थिति में जनता का हित साधना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये प्रशासन कई स्तर पर बांटा गया था।

केन्द्रीय प्रशासन :

सम्पूर्ण मौर्य काल में केन्द्रीय प्रशासन का प्रधान राजा होता था। अतः मौर्य साम्राज्य का स्वरूप राजतंत्रात्मक था। इस व्यवस्था के अनुरूप मौर्य सम्राट सर्वोच्च सेनापति, सर्वोच्च न्यायधीश तथा सर्वोच्च कार्यपालिका अध्यक्ष माना जाता था। राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद का गठन किया गया था। इस परिषद के सदस्यों को राजा ही नियुक्त करता था। मंत्रिपरिषद राजा को सिर्फ परामर्श देती थीं। मंत्रिपरिषद व राजा के द्वारा मुख्य रूप से नीति-निर्धारण का कार्य किया जाता था। उन नीतियों को लागू करने का कार्य अधिकारियों द्वारा किया जाता था। इस उद्देश्य हेतु 18 विभागों का गठन किया गया था। प्रत्येक विभाग को तीर्थ कहा जाता था। तीर्थ का अध्यक्ष अमात्य कहलाता था। समाहर्ता, सन्निधाता, मन्त्री, व्यावहारिक, मंत्रिपरिषदाध्यक्ष प्रशास्ता, आटविक आदि प्रमुख अमात्य थे।

प्रान्तीय प्रशासन :

चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य के प्रान्तों की निश्चित संख्या हमें ज्ञात नहीं हैं। उनके पौत्र अशोक के अभिलेखों से हमें उसके समय में पांच प्रांतों की जानकारी मिलती है। इन प्रान्तों के राज्यपाल प्राय: राजकुल से संबंधित कुमार होते थे। परन्तु कभी-कभी अन्य योग्य व्यक्तियों को भी यह अवसर दिया जाता था। उदाहरण : चन्द्रगुप्त ने पुष्यगुप्त वैश्य को काठियावाड़ का राज्यपाल बनाया। राज्यपाल को 12000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। उनके पास अपनी मंत्रिपरिषद भी होती थी।

प्रान्त राजधानी
उत्तरापथ तक्षशिला
अवन्ति उज्जयिनी
कलिंग तोशाली
दक्षिणापथ सुवर्णगिरी
प्राच्य पाटलिपुत्र

मण्डल, जिला तथा नगर प्रशासन :

प्रत्येक प्रांत में कई मण्डल होते थे। इसकी समता आधुनिक कमिश्नरी से की जा सकती है। इसका प्रधान प्रदेष्टा नामक अधिकारी था। अशोक के अभिलेखों में इसे प्रादेशिक कहा गया है। यह केंद्र सरकार के समाहर्ता के प्रति उत्तरदायी था। मण्डल का विभाजन जिलों में होता था। इन्हें आहार या विषय कहा जाता था। जिले के नीचे स्थानीय नामक इकाई थी। इसमें 800 गांव शामिल थे। स्थानीय के अन्तर्गत 400-400 ग्राम की द्रोणमुख नामक दो इकाइयां थीं। द्रोणमुख के अन्तर्गत 200-200 ग्राम की खार्वटिक इकाई थी। खार्वटिक के अन्तर्गत 20 संग्रहण थे। प्रत्येक संग्रहण में दस गांव होते थे। संग्रहण का प्रधान अधिकारी गोप कहलाता था। मौर्य युग में नगरों का प्रशासन नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। नगर की एक सभा होती थी जिसका प्रमुख नागरक कहलाता था। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर परिषद् की 5-5 सदस्यों वाली छः समितियों का उल्लेख किया है। ये समितियां थी :

  • शिल्पकला समिति
  • वैदेशिक समिति
  • जनसंख्या समिति
  • वाणिज्य समिति
  • उद्योग समिति
  • कर समिति

ग्राम प्रशासन :

प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। इसका अध्यक्ष ग्रामणी होता था। वह ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होता था। अर्थशास्त्र में वर्णित ग्राम वृद्धपरिषद में गांवों के प्रमुख व्यक्ति होते थें। ये ग्राम प्रशासन में ग्रामणी की मदद करते थे। राज्य ग्राम प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। गांव की भूमि, सिंचाई तथा न्याय से संबंधित सभी कार्यों को निपटाने का अधिकार ग्रामणी को था।

न्याय-व्यवस्था :

मौर्यों की एकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था में सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। सामान्यतः सम्पूर्ण साम्राज्य में दो प्रकार के न्यायालय थे :

  1. धर्मस्थलीय (दीवानी न्यायालय)
  2. कण्टक शोधन (फौजदारी न्यायालय)

राजस्व प्रशासन :

भूमि कर राज्य की आय का मुख्य साधन था। यह उपज का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त सेतु शुल्क (चुंगी), बिक्रीकर, दंड तथा राजकीय उद्योगों आदि से भी आय होती थी।

पुलिस और गुप्तचर व्यवस्था : राज्य में सुरक्षा के लिए पुलिस तथा गुप्तचर व्यवस्था थी। गुप्तचर अनेक रूप में रहते थे।

सैन्य प्रशासन :

  • चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक अत्यंत विशाल सेना थी। इसमें 6 लाख पैदल, 30 हजार घुड़सवार, 9 हजार हाथी तथा 800 रथ थे।
  • सैनिकों की संख्या कृषकों के बाद सर्वाधिक थी। सैनिकों को नकद वेतन मिलता था।
  • दुर्ग पांच प्रकार के होते थे-स्थल दुर्ग, जल दुर्ग, वन दुर्ग, गिरिदुर्ग तथा मरु दुर्ग।
  • इस सेना का प्रबन्ध छः समितियों द्वारा होता था। प्रत्येक समिति में पांच-पांच सदस्य होते थे। ये समितियां थी
  1. पैदल सेना समिति
  2. अश्वारोही समिति
  3. नौ सेना समिति
  4. गज सेना समिति
  5. रसद समिति
  6. रथ सेना समिति

लोकहित के कार्य

चन्द्रगुप्त मौर्य ने प्रजा के भौतिक जीवन को सुखी तथा सुविधापूर्ण बनाने के लिए अनेक उपाय किये। कृषि सिंचाई तथा पीने के पानी के लिए सुदर्शन झील का निर्माण करवाया। सड़कों के किनारे वृक्ष लगवाये। औषधालय तथा पशु अस्पताल बनवाये गये। इन सब कार्यों से चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को चरितार्थ करती है।

सामाजिक स्थिति

मौर्य काल तक आते आते वर्णाश्रम व्यवस्था को एक निश्चित आधार प्राप्त हो चुका था। चार वर्णों के अतिरिक्त अनेक उपजातियों का भी उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है। इन उपजातियों की उत्पत्ति विभिन्न अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के कारण हुई थी।

नृत्य, वाद्य, गायन, घुड़-दौड़, शतरंज तथा जुआ खेलना समाज में लोकप्रिय खेल थे। लोग सूती, ऊनी, रेश्मी वस्त्र धारण करते थे। उच्च वर्ग के लोग सोना-चांदी व रत्न-जड़ित वस्त्र पहनते थे।

इस काल में शिक्षा का प्रचार हुआ। शिक्षा के केंद्र गुरुकुल व मठ होते थे। तक्षशिला, बनारस, उज्जैन उच्च शिक्षा के विख्यात केंद्र थे।

आर्थिक जीवन

जनता का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशुपालन था। सिंचाई की व्यवस्था थी। अनेक प्रकार के अन्न तथा फल-सब्जियां उत्पन्न होती थी। कपड़ा, चमड़ा, आभूषण, लकड़ी आदि के उद्योग उन्नत थे। सिक्कों का प्रचलन था व अनेक देशों से व्यापार होता था।

धार्मिक जीवन

मौर्य काल में वैदिक, बौद्ध, जैन तथा आजीवक मत एवं सम्प्रदाय मुख्य थे। बुद्ध को देवता मानकर उनके अवशेषों एवं प्रतीकों की पूजा की जाने लगी थी।

माइंड मैप :-

326 ई.पू. सिकंदर का भारत पर आक्रमण
325 ई.पू. सिकंदर की भारत से वापसी
322 ई.पू. चंद्रगुप्त द्वारा मौर्य साम्राज्य की स्थापना
321 ई.पू. चंद्रगुप्त द्वारा पश्चिमोत्तर (पंजाब तथा सिंध) विजय
305 ई.पू. चंद्रगुप्त का सेल्यूकस से युद्ध
298 ई.पू. चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु
273 ई.पू. बिंदुसार की मृत्यु
269 ई.पू. अशोक का राज्याभिषेक
261 ई.पू. कलिंग विजय
184 ई.पू. मौर्य साम्राज्य का पतन

Leave a Comment

error: