राष्ट्रीय चेतना के तत्व Class 9 इतिहास Chapter 2 Notes – हमारा भारत IV HBSE Solution

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राष्ट्रीय चेतना के तत्व Class 9 इतिहास Chapter 2 Notes


भारतीय, विदेशी दासता व शोषण से असंतुष्ट रहे तथा उन्होंने विदेशियों के भारतीय संस्कृति में हस्तक्षेप का लगातार विरोध किया। अंग्रेजों के समय में तो यह विरोध किसी न किसी रूप में तथा किसी न किसी क्षेत्र में हर वर्ष होता रहा जिसकी सामूहिक प्रतिक्रिया 1857 ई. की क्रांति के रूप में हुई।

राष्ट्र का अर्थ – राष्ट्र से अभिप्राय एक ऐसे जन समूह से है जो किसी भौगोलिक सीमा के निश्चित क्षेत्र में रहता हो, समान हितों, समान इतिहास, समान परम्पराओं तथा समान भावनाओं से बँधा हो व जिसमें एकता के सूत्र में बँधने की उत्सुकता और समान राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाई जाती हों।

भारत में राष्ट्रीय चेतना – राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना किसी राष्ट्र के निवासियों में पाई जाने वाली सामुदायिक भावना है जो उनके संगठन को सुदृढ़ करती है। उन्नीसवीं सदी के समाज सुधार आंदोलनों ने भारतीयों में एकता और संघर्ष की राष्ट्रीय भावना को तीव्रता प्रदान की। अठारहवीं सदी में ही ब्रिटिश शासन की स्थापना तथा विस्तार के साथ ही भारत के हर क्षेत्र में लोगों ने लगातार संघर्ष किया जिसकी अखिल भारतीय प्रतिक्रिया 1857 ई. की बड़ी क्रांति के रूप में हुई। भारत में राष्ट्रीय चेतना की यह तीव्रता सांस्कृतिक पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप तथा अंग्रेजों के औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध हुई तीव्र प्रतिक्रिया का परिणाम थी।

राष्ट्रीय-चेतना जगाने वाले तत्वों का विवरण इस प्रकार है —

1. समाज सुधार आंदोलन —

राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज आंदोलन – राजा राममोहन राय को ‘आधुनिक युग का जनक’, तथा ‘नए युग का अग्रदूत’ कहा जाता है। उन्होंने 1828 ई. में ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना कर सती प्रथा, जाति प्रथा, छूआछूत जैसी कुरीतियों को समाप्त करने का प्रयास किया। उन्होंने प्रैस अध्यादेश का जमकर विरोध किया तथा भारतीयों में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना जागृत की।

स्वामी दयानंद सरस्वती का आर्य समाज आंदोलन – स्वामी दयानंद सरस्वती दूसरे महान समाज सुधारक थे। उन्होंने 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की तथा भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वासों का घोर विरोध किया। उन्होंने ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा देकर भारतीयों को वैदिक सभ्यता व संस्कृति की ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वदेशी राज को विदेशी राज से अच्छा बताया उन्होंने स्वदेश, स्वधर्म तथा स्वभाषा का विचार दिया।

स्वामी विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन आंदोलन – स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य थे। उन्होंने ‘शिकागो विश्व धर्म संसद’ में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व किया तथा 1897 ई. में ‘रामकृष्ण मिशन’ की नींव रखी। उन्होंने भारतीय सभ्यता व संस्कृति को विश्व की सर्वश्रेष्ठ सभ्यता कहा जिससे भारतवासियों में सांस्कृतिक चेतना उत्पन्न हुई। उन्होंने आह्वान किया कि “उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि तुम अपना लक्ष्य प्राप्त न कर लो।” इस प्रकार उन्होंने भारतीयों में आत्म सम्मान व स्वाभिमान की भावना भरकर राजनीतिक चेतना उत्पन्न की।

थियोसोफिकल आंदोलन – भारतीय हिन्दू धर्म व संस्कृति से प्रेरित विदेशियों ने ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की स्थापना की। इस सोसायटी की एक प्रमुख नेता आयरलैण्ड की महिला श्रीमती ऐनी बेसेंट थी। अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता के ज्ञान से भारतीयों में आत्मविश्वास की भावना प्रबल हुई तथा उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लेना आरम्भ कर दिया।

2. अंग्रेजों की शोषणकारी आर्थिक नीतियों की प्रतिक्रिया —

ईस्ट इण्डिया कंपनी की स्थापना ब्रिटिश व्यापारियों ने अधिक से अधिक लाभ कमाने के लक्ष्य से की थी। 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई के बाद यह व्यापारिक कंपनी राजनीतिक सत्ता में परिवर्तित हो गई किन्तु इसका लक्ष्य अभी भी अधिक से अधिक लाभ कमाना ही था। सत्ता-प्राप्ति के बाद इसने शोषण की प्रक्रिया को और मुखर कर दिया। इसने शोषणकारी आर्थिक नीतियाँ अपनाकर भारत का अधिक से अधिक शोषण व दोहन किया। अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियाँ निम्न प्रकार से थीं :-

शोषणकारी भू-राजस्व नीतियाँ – अंग्रेजों ने भारत के अलग-अलग भू-भागों पर अलग-अलग भू-राजस्व नीतियाँ लागू की, जैसे- पूर्व में स्थायी बंदोबस्त, दक्षिण में रैयतवाड़ी तथा उत्तर में महालवाड़ी। इन सब भू-राजस्व नीतियों में राजस्व की मात्रा अधिक थी तथा राजस्व कठोरता से वसूल किया जाता था जिससे कृषि पर निर्भर विभिन्न वर्गों में असंतोष उभरने लगा।

शोषणकारी व्यापारिक नीतियाँ – 1757 ई. के बाद कंपनी ने पहले व्यापारिक एकाधिकार तथा फिर स्वतंत्र व्यापार की नीति अपनाकर भारत को कच्चे माल का निर्यातक देश व तैयार माल का आयातक देश बना दिया, जिससे यहाँ के हस्तशिल्प व लघु उद्योग नष्ट हो गए तथा भारतीय व्यापारियों को हानि उठानी पड़ी।

यातायात व संचार की नीतियाँ – भारत के आंतरिक भागों से कच्चे माल को बंदरगाहों तक लाने तथा बंदरगाहों से यूरोपीय माल को आंतरिक भागों तक पहुँचाने के लिए अंग्रेजों ने यातायात के नए साधनों का विकास किया। रेलों व सड़कों का जाल बिछाया गया। इसके साथ-साथ संपूर्ण भारत पर कठोर नियंत्रण के लिए संचार के नए साधनों, जैसे- डाक व तार को भी विकसित किया किन्तु इन सभी साधनों का लाभ भारतीयों को भी हुआ तथा उनमें एकता व राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ।

धन का निकास – भारत में ब्रिटिश शासन का स्वरूप सदा विदेशी बना रहा तथा भारत से बहुत बड़ी मात्रा में धन, वेतनों, युद्ध – खर्चों, गृहप्रभार व सेना पर खर्चों के रूप में इंग्लैण्ड जाता रहा। इसे ही धन का निकास कहा जाता है। इसकी विस्तृत व्याख्या राष्ट्रीय नेता दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ (1876 ई.) में की तथा इसे भारत की दरिद्रता का मुख्य कारण माना।

3. 1857 ई. की महान क्रांति —

ब्रिटिश शोषण तथा भारतीय सभ्यता व संस्कृति में अनुचित हस्तक्षेप के विरुद्ध भारत के प्रत्येक क्षेत्र के हर वर्ग में एक बेचैनी तथा असंतोष उत्पन्न हुआ जिसकी चरम परिणति 1857 ई. की बड़ी क्रांति के रूप में हुई। भारत के राजा, प्रजा, व्यापारी, हस्तशिल्पी, किसान, जमींदार, स्त्री-पुरुष, हिन्दू-मुसलमान आदि प्रत्येक वर्ग ने एकजुट होकर शोषणकारी विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने का सम्मिलित प्रयास किया। हजारों की संख्या में भारतीयों का बलिदान हुआ। इस राष्ट्रव्यापी संघर्ष को अंग्रेज अपने आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से दबाने में सफल तो हो गए किन्तु इस क्रांति की वीरगाथाएँ भारतीयों में सदा बलिदान तथा शौर्य की भावना जागृत करती रही।

हरियाणा के लोगों ने इस क्रांति में बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा अम्बाला, रेवाड़ी, बल्लभगढ़, रोहतक, हाँसी, झज्जर में क्रांतियाँ हुई।

4. भारत के गौरवशाली इतिहास पर शोध का प्रभाव —

विदेशी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय इतिहास पर शोध करके भारत की प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर को विश्व के सामने रखा। जेम्स प्रिन्सेप द्वारा ब्राह्मी लिपि पढ़ने से अशोक महान जैसे मौर्य सम्राट की जानकारी मिली, तो वहीं कनिंघम के पुरातात्त्विक उत्खनन से भारत की महान प्राचीन धरोहर का पता चला। यह ऐतिहासिक धरोहर किसी भी प्रकार से यूनान व रोम की सभ्यताओं से कमतर नहीं थी। कई विदेशी विद्वानों ने वेदों व उपनिषदों का गुणगान किया जिससे भारतीयों में आत्महीनता के स्थान पर आत्मसम्मान व स्वाभिमान की भावना का आविर्भाव हुआ। इन सभी शोध कार्यों के कारण राजनीतिक चेतना का उदय हुआ।

एशिया महाद्वीप में एशियाटिक सोसाइटी ज्ञान और अनुसंधान का सबसे प्राचीन केंद्र है जिसकी स्थापना सर विलियम जोंस की पहल पर 1784 ई. में हुई। सोसाइटी का नाम पिछली दो शताब्दियों के कालचक्र में कई बार बदला, जैसे कि एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल (1832 ई.-1935 ई.), द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल (1936 ई.-1951 ई.) और जुलाई 1952 ई. से इसे एशियाटिक सोसाइटी के नाम से जाना जाने लगा। 1984 ई. से एशियाटिक सोसाइटी को भारत के संसद के एक अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में स्थान प्राप्त है।

5. अंग्रेजों में प्रजातियां दंभ तथा भारतीयों में दुर्व्यवहार – अंग्रेज स्वयं को उच्च प्रजाति का तथा भारतीयों को निम्न व निकृष्ट प्रजाति का मानकर उनसे घृणा करते थे। वे भारतीयों को हब्शी, काला बाबू आदि नामों से पुकारते थे तथा उनके साथ दुर्व्यवहार करते थे। प्रजातीय विभेद की नीति के आधार पर भारतीयों के साथ अनेक प्रकार का दुर्व्यवहार किया जाता था।  प्रतिक्रियास्वरूप भारतीयों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई। ‘इल्बर्ट बिल विवाद’ भी अंग्रेजों की जातीय विभेद की नीति को दर्शाता है।

6. समाचार पत्रों की भूमिका —

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ से ही भारत में समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगे। राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित ‘बंगदूत’, ‘संवाद कौमुदी’, ‘ब्राह्मनिकल’ प्रारम्भिक समाचार-पत्र थे। बाद में और भी अनेक समाचार-पत्र, जैसे ‘बंगाली’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘इन्दु प्रकाश’, ‘मराठा’, ‘केसरी’, ‘दि हिन्दू’, ‘कोहिनूर’, ‘प्रताप’, ‘यंग इंडिया’ आदि प्रकाशित हुए।

1877 ई. तक भारतीय भाषाओं में छपने वाले समाचार-पत्रों की संख्या एक सौ उनहत्तर तक पहुँच गई थी। इन -पत्रों ने समाचार-पत्रों में अंग्रेजी सरकार की आलोचना प्रकाशित होने लगी तथा साथ ही इन समाचार-प लोकतान्त्रिक विचारों व स्वतंत्रता की भावना को जनता में लोकप्रिय बनाया।

7. राष्ट्रीय साहित्य की भूमिका —

उन्नीसवीं सदी में समाचार-पत्रों की भांति ही राष्ट्रीय साहित्य ने भी उपन्यासों, निबन्धों, नाटकों, कविताओं, कहानियों, जीवन-चरितों के माध्यम से आधुनिक राष्ट्रीय चेतना जगाने में अहम् भूमिका निभाई। दीनबंधु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण‘, बंकिम चन्द्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंदमठ‘ व ‘देवी चौधरानी’, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक ‘भारत दुर्दशा’, वीर सावरकर की रचना ‘दि इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेन्स-1857’ इत्यादि रचनाओं ने भारतीयों में राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना उत्पन्न की।

1857 ई. का ‘स्वातंत्र्य समर’ एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसके लेखक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर थे। इस ग्रन्थ में उन्होंने तथाकथित सिपाही विद्रोह का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था। इस ग्रन्थ को प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबन्धित होने का गौरव प्राप्त है। बांग्ला नाटककार दीनबन्धु मित्र का 1860 ई. में प्रकाशित नाटक ‘नील दर्पण’ एक महत्वपूर्ण कृति है। इस नाटक में बंगाल के किसानों के ऊपर अंग्रेजों द्वारा किए गए अमानुषिक अत्याचारों की बड़ी भावपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है।

बांग्ला में रवीन्द्रनाथ टैगोर, असमी में लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा, मराठी में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, तमिल में सुब्रमण्यम भारती, हिन्दी में मुंशी प्रेमचंद और उर्दू में अल्ताफ हुसैन हाली प्रमुख राष्ट्रीय लेखक थे।

8. लार्ड लिटन की दमनकारी नीतियाँ –

लार्ड लिटन 1876 ई. से 1880 ई. के बीच भारत का वायसराय रहा। उसकी अन्यायपूर्ण प्रतिक्रियावादी नीतियों से भारत में आधुनिक राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार हुआ।

कुछ दमनकारी नीतियां :-

  • 1876 ई. में आई.सी.एस. की प्रवेश-परीक्षा में बैठने की आयु घटाकर 19 वर्ष करना।
  • 1877 ई. में देश भर में अकाल के समय दिल्ली में शानदार शाही दरबार का आयोजन करना।
  • 1878 ई. में शस्त्र अधिनियम पास करके भारतीयों द्वारा शस्त्र रखने पर प्रतिबंध लगाना।
  • पत्रों पर 1878 ई. में वर्नाक्यूलर प्रैस अधिनियम पास करके भारतीय भाषाओं में छपने वाले समाचार रोक लगाना।

9. पश्चिमी शिक्षा तथा भारतीय बुद्धिजीवियों का योगदान —

लार्ड मैकाले के प्रयासों से 1835 ई. में भारत में पश्चिमी अर्थात् अंग्रेजी शिक्षा का आरम्भ हुआ। अंग्रेजी शिक्षा को लागू करने के पीछे अंग्रेजी सरकार का उद्देश्य सस्ते क्लर्क, वफादार वर्ग तथा अंग्रेजी माल की अधिक से अधिक खपत करना था । शीघ्र ही अंग्रेजी पढ़कर भारत में एक नए भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हुआ। मिल्टन, शैले, बेंथम, मिल, स्पेन्सर, रूसो, वाल्टेयर जैसे पश्चिमी साहित्यकारों व दार्शनिकों को पढ़कर तथा 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति, इटली व जर्मनी के एकीकरण व आयरलैण्ड के स्वतंत्रता संघर्ष से प्रेरणा लेकर यह वर्ग स्वतंत्रता व स्वशासन की ओर आकर्षित हुआ।

10. तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव –

1776 ई. की अमेरिकी क्रांति, 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति, यूनान स्वतंत्रता संघर्ष, इटली व जर्मनी के एकीकरण तथा आयरलैण्ड के स्वतंत्रता संघर्ष ने भारतीयों के मनोभावों को प्रभावित किया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी व लाला लाजपतराय मैजिनी से प्रभावित थे तो वहीं सुभाष चंद्र बोस पर गैरीबाल्डी का प्रभाव था। इसके अतिरिक्त अबीसीनिया द्वारा इटली की पराजय (1896 ई.) तथा जापान द्वारा रूस की पराजय (1905 ई.) की घटनाओं ने भी आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता को जुझारू बनाने में योगदान दिया।

11. विभिन्न राजनीतिक संगठनों की स्थापना –

1838 ई. में भारत में जमींदारों के हितों की रक्षा के लिए पहला राजनीतिक संगठन ‘लैण्ड होल्डर्स सोसायटी’ बना। 1843 ई. में ‘बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी’ बनी। इसके बाद दोनों को मिलाकर 1851 ई. में ‘ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन’ का निर्माण हुआ। 1875 ई. में ‘इंडियन लीग’ तो 1876 ई. में ‘इंडियन एसोसिएशन’ का निर्माण हुआ। इसी तरह से कई अन्य संगठन जैसे- ‘बोम्बे एसोसिएशन’, ‘पूना सार्वजनिक सभा’, ‘मद्रास महाजन सभा’ आदि का गठन हुआ। इसी कड़ी में 1885 ई. में एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी ए. ओ. ह्यूम ने ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ की स्थापना की।

पाठ से कुछ महत्वपूर्ण तिथियां :-

1. अमेरिकी क्रांति – 1776 ई.

2. फ्रांसीसी क्रांति – 1789 ई.

3. भारत में अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ – 1835 ई.

4. नीलदर्पण नाटक का प्रकाशन – 1860 ई.

5. ‘पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ का प्रकाशन –  1876 ई.

6. इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना – 1876 ई.

7. आई.सी.एस. परीक्षा में बैठने की आयु घटाकर 19 वर्ष की गई – 1876 ई.

8. अकाल के समय दिल्ली में शानदार शाही दरबार का आयोजन – 1877 ई.

9. शस्त्र अधिनियम पारित हुआ – 1878 ई.

10. वर्नाक्यूलर प्रैस अधिनियम पास हुआ – 1878 ई.

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