सरस्वती-सिंधु सभ्यता Class 10 इतिहास Chapter 1 Notes – भारत एवं विश्व HBSE Solution

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सरस्वती-सिंधु सभ्यता Class 10 इतिहास Chapter 1 Notes


सरस्वती और सिंधु नदियों के उपजाऊ मैदानों में भारत की पहली नगरीय सभ्यता का उदय हुआ। इस सभ्यता के पुरास्थल सरस्वती व सिंधु नदियों के किनारे होने के कारण इसे ‘सरस्वती-सिंधु सभ्यता’ या ‘सिंधु सभ्यता’ या ‘हड़प्पा सभ्यता’ के नाम से जानते हैं।

सर्वप्रथम 1921 ईस्वी में दयाराम साहनी ने पंजाब प्रांत में हड़प्पा और 1922 ईस्वी में राखल दास बनर्जी ने सिंध प्रांत में मोहनजोदड़ो ना हो पूरा स्थलों का उत्खनन किया।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता का विस्तार —

यह सभ्यता पूर्व में आलमगीरपुर ( पश्चिमी उत्तर प्रदेश ) से पश्चिम में सुत्कागेनडोर ( बलूचिस्तान ) तक और उत्तर में मांडा ( जम्मू ) से लेकर दक्षिण में दायमाबाद ( महाराष्ट्र ) तक था।

इस सभ्यता का क्षेत्रफल 2,15,000 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें पूर्व से पश्चिम तक 1600 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण तक 1400 किलोमीटर है।

इस सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरी राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान में बलूचिस्तान, सिंध आदि प्रांतों में मिलते हैं। जिनमें राखीगढ़ी, बनवाली ( हरियाणा ), मोहनजोदड़ो ( सिंधु ), हड़प्पा ( पंजाब ), धोलावीरा ( गुजरात ) और कालीबंगा ( राजस्थान ) महत्वपूर्ण नगर थे।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता का कालक्रम —

इस सभ्यता की शुरुआत लगभग 7500- 7000 ईसवी पूर्व सरस्वती नदी के तट पर हुई। इस सभ्यता में 3200 ईसवी पूर्व में नगर योजना के लक्षण, लेखन कला मुहावरों का विकास और नापतोल की पद्धति का विकास हुआ। 1900 ईसवी पूर्व तक आते-आते नगरीय सभ्यता का बदलाव ग्रामीण संस्कृति में होना शुरू हो गया। 1300 ईसवी से पूर्व इस सभ्यता का पतन हो गया।

कालक्रम की दृष्टि से सरस्वती-सिंधु सभ्यता को तीन चरणों में विभाजित किया जाता है।

  1. प्रारंभिक काल ( >4000-2600 ई. पू. )
  2. नगरीय काल ( 2600-1900 ई. पू. )
  3. उत्तर काल ( 1900-1300 ई. पू. )

सरस्वती-सिंधु सभ्यता की नगर योजना —

इस सभ्यता के नगरों में प्रायः पूर्व और पश्चिम दिशा में दो टीले मिलते हैं। पूर्व दिशा के टीले पर आवास क्षेत्र और पश्चिम टीले पर दुर्ग स्थित होता था। नगर के आवास क्षेत्र में सामान्य नागरिक, व्यापारी, शिल्पकार, कारीगर और श्रमिक रहते थे। दुर्ग के अंदर प्रशासनिक, सार्वजनिक भवन और अन्नागार स्थित थे।

इस सभ्यता की सड़कें नजरों को पाँच- छ: खंडों में विभाजित करती थी। मोहनजोदड़ो में मुख्य सड़कें 9.15 मीटर तथा गलियां औसतन 3 मीटर चौड़ी थी। सड़के कच्ची होती थी लेकिन साफ सफाई का विशेष ध्यान दिया जाता था। सड़कों के किनारे कूड़ेदान भी रखे जाते थे।

घरों की नालियां सड़क के किनारे बड़े नाले में गिरती थी। फिर नालों के माध्यम से पानी नगर से बाहर जाता था। नालिया पक्की ईंटों की बनाई जाती थी और इन्हें ऊपर से ढक दिया जाता था।

इस सभ्यता की आवासीय भवनों में तीन-चार कमरे, रसोईघर, स्नानघर और भवन के बीच में आंगन होता था। संपन्न लोगों के घरों में कुआं और शौचालय भी होते थे। मकानों में खिड़कियां रोशनदान फर्श और दीवारों पर पलस्तर के सबूत भी मिले हैं। सामुदायिक भवनों में सभा भवन, अन्नागार और स्नानागार मिलते हैं। भवनों को बनाने में 1:2:3 और 1:2:4 अनुपात की ईंटों का उपयोग किया गया है।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता की कला —

इस सभ्यता में धातु और मिट्टी की मूर्तियों का उल्लेख किया जाता है। इसके अतिरिक्त मोहरे, मनके और मिट्टी के बर्तन बनाए जाते थे।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त खंडित पुरुष की मूर्ति 19 सेंटीमीटर लंबी है जो बहुत प्रसिद्ध है। मोहनजोदड़ो से विश्वविख्यात धातु की नर्तकी की मूर्ति भी मिली है। पुरुषों, स्त्रियों व पशु पक्षियों की भी मिट्टी की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।

पशु और पक्षियों में बैल, भेड़, बकरी, कुत्ता, हाथी, सूअर, मोर, बत्तख, तोता और कबूतर मिलते हैं।

इस सभ्यता में मुहरें मुख्यतः चौकोर या आयताकार हैं। जिन पर सूक्ष्म उपकरणों से पशु-पक्षियों, देवी देवताओं एवं लिपि को अंकित किया गया है। सेलखड़ी, गोमेद, शंख, हाथी दांत, सोने, चांदी और तांबे के आभूषण मिलते हैं।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता का राजनीतिक जीवन —

मेसोपोटामिया सभ्यता में नगर राज्यों का संचालन पुरोहित शासकों के हाथ में था और संपूर्ण भूमि मंदिरों की संपत्ति होती थी। विद्वानों का मानना है कि, “सरस्वती-सिंधु सभ्यता के प्रशासन का संचालन हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो राजधानियों से होता था।” इस सभ्यता के राजनीतिक जीवन के अधीक  साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता का सामाजिक जीवन —

इस सभ्यता का समाज अनेक वर्गों में विभाजित रहा होगा। नगरों को दुर्ग क्षेत्र और आवास क्षेत्र में विभाजित किया जाता था। नगर दुर्गों में संपन्न व्यक्ति या शासक वर्ग निवास करता था। धोलावीरा के दुर्ग क्षेत्र को दो भागों में बांटा गया था। दुर्ग क्षेत्रों में सुरक्षा और विशेष सुविधाओं का ध्यान रखा जाता था।

आवासीय क्षेत्र में व्यापारी, सैनिक, अधिकारी, शिल्पी और मजदूर रहते थे। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में आवासीय क्षेत्र रक्षा-प्राचीर से भी घिरे हुए नहीं थे। किंतु कालीबंगा, लोथल, बनावली और धोलावीरा में किलेबंदी के साक्ष्य मिले हैं।

इस सभ्यता के समाज में कृषक, कुंभकार, बढ़ई, नाविक, श्रमिक, आभूषण बनाने वाले शिल्पी और जुलाहे महत्वपूर्ण वर्ग थे।

इस सभ्यता के लोगों का मुख्य भोजन जौ, गेहूं, चावल, फल, सब्जियां, दूध, मांस ( मछली, भेड़, बकरी, सूअर का) था। खुदाई में मिले चूल्हे सिलबट्टे आदि से भोजन पकाने और पीसने के प्रमाण भी मिलते हैं। भोजन के लिए थाली गिलास कटोरा और लोटा आदि का प्रयोग किया जाता है।

उस समय पुरुष और स्त्रियां दोनों आभूषण पहना करते थे। आभूषणों में मुख्य रूप से हार, भुजबंद, कंगन, अंगूठी पहनी जाती थी। धनी लोग सोने-चांदी, अर्ध-कीमती पत्थर, हाथी दांत आदि के जबकि निर्धन लोग पक्की मिट्टी, हड्डी और पत्थर के आभूषण पहनते थे।

वे मुख्य रूप से हाथी दांत के कंधे और तांबे के शिशे का प्रयोग करते थे। स्त्रियां काजल, सूरमा, सिंदूर भी लगाती थी। शतरंज का खेल और नृत्य उनके मनोरंजन के साधन थे।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता का आर्थिक जीवन—

सरस्वती-सिंधु का क्षेत्र बहुत अधिक उपजाऊ था। यहां के लोग मुख्य रूप से गेहूं, जौ, चावल, मूंग, मसूर, मटर, सरसों,कपास, तिल आदि की खेती करते थे।

विशिष्ट प्रकार की फसलें, फसल बोने की विधि, कृषि के उपकरण, सिंचाई व्यवस्था आदि उस समय के कृषि विकास को दर्शाती है।

मेहरगढ़ से प्राप्त पत्थर की दरांति, कालीबंगा से प्राप्त जुते हुए खेत और बनावली से प्राप्त हल का नमूना इसके सबूत हैं।

इस सभ्यता में बैल, गाय, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता, गधे और सूअर को प्रमुख रूप से पाले जाते थे। इनका प्रयोग दूध, मांस, खाल और उन के लिए होता था। इस सभ्यता के लोगों ने घोड़े और ऊंट को भी पालतू बनाया। इसके अलावा जंगली सूअर, चिंकारा, हिरण और नीलगाय आदि जंगली जानवरों के भी प्रमाण मिले हैं।

यह सभ्यता वस्तुओं का आयात और निर्यात भी करती थी। इसके पास नापतोल की प्रणाली, मुद्राएं, यातायात के साधन मौजूद थे। स्थल मार्ग से व्यापार बैल गाड़ियों के द्वारा और समुद्री मार्ग में व्यापार नाव के द्वारा किया जाता था।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता का धार्मिक जीवन —

इस सभ्यता के लोग मातृ शक्ति की पूजा करते थे। जिसके साक्ष्य नारी की मिट्टी की मूर्तियों और मोहरों पर नारी आकृतियों के अंकन से मिलते हैं। इन मूर्तियों पर धुएं के निशान भी मिले हैं।

इस सभ्यता के लोग पशुपति शिव की उपासना भी किया करते थे। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर सींग वाले त्रिमुखी पुरुष को सिंहासन पर योग मुद्रा में बैठे दिखाया गया है। जिसके दाहिने तरफ हाथी और बाघ, बाई तरफ गैंडा और भैंसा दिखाया गया है। सिहासन के नीचे दो हिरण खड़े दिखाए गए हैं। इस मूर्ति को पशुपति शिव की मूर्ति माना जाता है। इस सभ्यता के लोगों द्वारा शिवलिंग की पूजा भी की जाती थी।

इस सभ्यता के लोग मुख्य रूप से एक सींग वाले पशु, बैल, सांप, पीपल की पूजा भी करते थे।

इस सभ्यता में योग का महत्व भी रहा होगा। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मोहर में एक पुरुष की आकृति पद्मासन मुद्रा में दिखाई गई है और एक अन्य मुहर पर योग पुरुष की आधी खुली आंखें नासिका के अग्रभाग पर केंद्रित दिखाई गई हैं। इस सभ्यता में मुहरों पर स्वास्तिक चिन्ह भी मिलता है।

इस सभ्यता में अंतिम संस्कार की तीन विधियां पर चली थी।

  1. पूर्ण समाधिकरण
  2. आंशिक समाधिकरण
  3. दाह संस्कार

समाधि क्षेत्र नगरों से बाहर होते थे। शवों का सिर उत्तर की ओर तथा पैर दक्षिण दिशा की ओर होते थे। कंकालों के साथ मिट्टी के बर्तन, आभूषण, उपकरण आदि रखे जाते थे।


सरस्वती-सिंधु सभ्यता के पतन के कारण —

इस सभ्यता के पतन के एक नहीं बल्कि अनेक कारण उत्तरदाई रहे होंगे। अभी तक कोई पक्का साक्ष्य नहीं मिला है जो यह दर्शाता होगी इस सभ्यता का पतन कैसे हुआ। नीचे पतन के कुछ प्रमुख कारण लिखे गए हैं:-

  1. प्रशासनिक शिथिलता – बस्ती का आकार सीमित होने के कारण और स्वच्छता में कमी के कारण यह सभ्यता समाप्त हो गई।
  2. जलवायु परिवर्तन – वर्षा कम होने के कारण तथा सरस्वती नदी का पानी सूखने की वजह से उनका पतन हुआ।
  3. बाढ़ – मोहनजोदड़ो, चान्हुदड़ो, लोथल और भगतराव के उत्खनन में बाढ़ के साक्ष्य भी मिले हैं। यह भी पतन का कारण हो सकता है।
  4. विदेशी व्यापार में गतिरोध – इस सभ्यता के विदेशी व्यापार में कमी आने के कारण आर्थिक ढांचा कमजोर हो गया। जिसके कारण बहुमूल्य वस्तुओं की जगह स्थानीय उत्पादन की मांग बढ़ी और लोगों के जीवन स्तर में बहुत भारी गिरावट आई।
  5. महामारी – मोहनजोदड़ो से प्राप्त 42 मानव कंकाल के अध्ययन से पता चला कि उनमें से 41 की मौत मलेरिया से हुई थी। यह भी इस सभ्यता के पतन का कारण हो सकता है।

 

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