उदारवादी एवं राष्ट्रवादी Class 9 इतिहास Chapter 3 Notes – हमारा भारत IV HBSE Solution

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उदारवादी एवं राष्ट्रवादी Class 9 इतिहास Chapter 3 Notes


1857 ई. की क्रांति वास्तव में ईस्ट इण्डिया कपंनी के शासन के प्रति जनता के संचित असंतोष का और विदेशी शासन के प्रति उनकी घृणा का परिणाम थी। इस क्रांति में भारतीय सैनिकों, राजाओं, नवाबों, सरदारों, किसानों तथा जनता ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। इस क्रांति ने भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ें हिला कर रख दी। इस क्रान्ति के पश्चात् नए भारत का उदय हुआ तथा भारत में संगठित राष्ट्रीय जागृति का उत्थान हुआ। दूसरी तरफ अंग्रेज कभी भी 1857 ई. की क्रांति को भूल नहीं पाए। 1885 ई. में एक अंग्रेज ए.ओ. ह्यूम द्वारा कांग्रेस गठन भारतीयों में बढ़ रहे असंतोष को कम करने के लिए किया गया था।

उदारवादी –

1857 ई. की क्रांति के बाद शिक्षित भारतीयों में राजनीतिक जागरूकता जागृत करने के लिए कई राजनीतिक संगठनों की स्थापना हुई जैसे : इंडियन लीग, इंडियन एसोसिएशन, बोम्बे एसोसिएशन, पूना सार्वजनिक सभा इत्यादि। एक अंग्रेज अधिकारी ए. ओ. ह्यूम ने भारतीय नेताओं के सहयोग से 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में 1905 ई. तक के समय को राष्ट्रीय आंदोलन का ‘उदारवाद काल’ कहा जाता है क्योंकि इस काल के नेता पूरी नरमी एवं उदारता से अपनी मांगे ब्रिटिश सरकार के सम्मुख रखते थे।

क) उदारवादियों के नेता – उदारवादियों के मुख्य नेता दादाभाई नौरोजी, व्योमेश चंद्र बनर्जी, बदरुद्दीन तैयबजी, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविंद रानाडे, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, रोमेश चन्द्र दत्त, सुब्रमण्यम अय्यर तथा शिशिर कुमार घोष थे। ये सभी नेता ब्रिटिश सरकार से संबंध बनाए रखने के पक्ष में थे व उदार तथा नरमपंथी थे।

ख) उदारवादियों का लक्ष्य – उदारवादी नेता ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। उनका लक्ष्य ब्रिटिश शासन के अधीन ही स्वशासन की प्राप्ति करना था । उदारवादी चाहते थे कि विधान परिषदों में सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाए, उनके अधिकारों में वृद्धि की जाए तथा परिषदों के सदस्यों को लोगों द्वारा चुना जाए। उच्च प्रशासनिक सेवाओं में भारतीयों को भी नियुक्त किया जाए।

ग) उदारवादियों की मुख्य माँगें – इस काल में उदारवादियों की मुख्य माँगें निम्नलिखित थी :-

  • विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की जाए।
  • प्रशासनिक सेवा में भारतीयों की नियुक्ति की जाए।
  • सेना के खर्चे में कमी की जाए।
  • सामान्य तथा तकनीकी शिक्षा का विस्तार किया जाए।
  • उच्च पदों पर भारतीयों की अधिक नियुक्ति की जाए।
  • न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग किया जाए।
  • किसानों पर करों का बोझ कम किया जाए।
  • नागरिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हो।
  • नमक पर कर में कमी की जाए।
  • प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंध हटाए जाएं।

घ) उदारवादियों की विचारधारा – उदारवादी नेताओं पर ब्रिटिश विचारधारा, साहित्य एवं सभ्यता का गहरा प्रभाव था। वे इंग्लैंड की राजनीतिक संस्थाओं के प्रशंसक थे और अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि अंग्रेजों ने भारत में यातायात तथा संचार के साधनों का विकास किया, आधुनिक शिक्षा प्रणाली लागू की तथा भारत में कानूनों का संग्रह कर आधुनिक न्याय प्रणाली की व्यवस्था की। उदारवादी नेता अंग्रेजों एवं ब्रिटिश सरकार के साथ संबंध बनाए रखने के पक्ष में थे ताकि भारतीय अंग्रेजों के प्रति समर्पित रहकर उनसे उदार राजनीतिक संस्थाओं एवं विचारधाराओं के विषय में व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त कर सकें।

ड.) उदारवादियों की कार्यविधि – उदारवादी नेता अपनी मांगों को मनवाने के लिए संवैधानिक और शांतिपूर्ण साधनों में विश्वास रखते थे। वे अपना प्रचार समाचार-पत्रों, भाषणों तथा कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों के द्वारा करते थे। आंदोलन करने का यह पश्चिमी ढंग था जो इन शिक्षित भारतीयों ने अंग्रेजों से सीखा था। उदारवादी समय-समय पर सरकार को प्रार्थना-पत्र तथा प्रस्ताव भी पेश करते रहते थे। उनके प्रचार का मुख्य साधन समाचार-पत्र थे क्योंकि कई उदारवादी नेता स्वयं ही कुछ अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं में छपने वाले समाचार-पत्रों के संपादक थे। कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में उदारवादी नेता सरकार की नीतियों पर वाद-विवाद करते थे और सर्वसम्मति से पास किए गए प्रस्तावों द्वारा ब्रिटिश सरकार को अपनी मांगों से अवगत कराते थे।

इंग्लैंड की सरकार तथा वहाँ के जनमत को भारत के पक्ष में करने के लिए उदारवादियों ने समय-समय पर अपने कई प्रतिनिधि इंग्लैंड भेजे। इंग्लैंड में भारत की वास्तविक स्थिति का प्रचार करने के लिए 1889 ई. में लंदन में ‘ब्रिटिश कमेटी ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस’ नामक संस्था की स्थापना की गई। 1890 ई. में इस संस्था ने ‘इंडिया’ नामक एक समाचार पत्र भी आरंभ किया।

च) उदारवादियों का योगदान अथवा उपलब्धियाँ – उदारवादियों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी कि वे भारत में राष्ट्रीय जागरण लाने में सफल रहे। अपने उत्साहपूर्ण भाषण एवं समाचार पत्रों में छापे गए लेखों द्वारा इन नेताओं ने जनता में राष्ट्रीय भाव जागृत किए। उदारवादियों ने अपनी मांगों का प्रचार केवल भारत में ही नहीं किया अपितु कई नेता इंग्लैंड में भी गए और उन्होंने वहाँ की सरकार तथा संसद के सदस्यों को अपनी मांगों से परिचित करवाया। उनके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ही 1892 ई. में इंग्लैंड की संसद ने ‘इंडियन कौंसिल एक्ट’ पास किया जिसके अनुसार केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई। इन परिषदों में भारतीयों को अधिक स्थान दिया गया। इस एक्ट के अनुसार पहली बार देश में निर्वाचन प्रक्रिया आरम्भ की गई।

उदारवादियों ने कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में पास किए प्रस्तावों, भाषणों तथा प्रैस द्वारा प्रशासन में सुधार संबंधी अपनी मांगों से ब्रिटिश सरकार को अवगत करवाया। उन्हें विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार उनकी उचित मांगों को अवश्य पूरा करेगी।  यद्यपि उदारवादी भारतीयों को अंग्रेजी शासन के शोषणकारी आर्थिक स्वरूप के बारे में जागृत करने में सफल हुए। लेकिन फिर भी उनकी अंग्रेजपरस्ती के कारण वे आम जनता के नेता बनने में असफल रहे।

राष्ट्रवादी –

1905 ई. के पश्चात् उदारवादी नेताओं का महत्व अब राजनीतिक क्षेत्र में बहुत कम हो गया और राष्ट्रवादियों का उत्थान हुआ।

क) राष्ट्रवादी नेता – इस कालखण्ड में राष्ट्रवादियों के प्रमुख नेता बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष, विपिन चंद्र पाल तथा लाला लाजपत राय थे। इनके अतिरिक्त अन्य नेताओं में बंगाल के राजनारायण बोस और अश्विनी कुमार दत्त तथा महाराष्ट्र में विष्णु शास्त्री चिपलुंकर थे। इन नेताओं ने प्राचीन भारतीय धर्म एवं संस्कृति से विशेष प्रेरणा ली थी। वे ब्रिटिश सरकार की नीतियों के घोर विरोधी थे। राष्ट्रवादियों ने स्वराज प्राप्ति हेतु जोरदार राष्ट्रीय आंदोलन चलाए।

बाल गंगाधर तिलक (लोकमान्य तिलक) – लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ तथा मराठी भाषा में ‘केसरी’ नामक समाचार पत्र चलाए। इन समाचार पत्रों के माध्यम से उन्होंने विदेशी शासन की कठोर शब्दों में निंदा की तथा ‘स्वराज’ का जोरदार ढंग से प्रचार किया। उन्होंने 1893 ई. में लोगों में राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार करने के लिए ‘गणपति उत्सव’ को माध्यम बनाना आरंभ किया। 1895 ई. में उन्होंने ‘शिवाजी समारोह’ भी आरंभ करवाया ताकि नवयुवक शिवाजी की महान उपलब्धियों से प्रेरणा लेकर राष्ट्रवाद के उत्साही समर्थक बने। 1896 ई. 1897 ई. में अकाल पड़ने की स्थिति में, महाराष्ट्र के किसानों के द्वारा ‘भूमि कर न देने का अभियान’ तिलक ने चलाया। उन्होंने स्वराज का उद्घोष करते हुए कहा कि “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।”

लाला लाजपत राय – लाला लाजपत राय भी एक महान राष्ट्रवादी नेता थे जिन्हें ‘शेर-ए-पंजाब’ (पंजाब केसरी) की उपाधि दी गई। उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ नामक उर्दू दैनिक तथा ‘द पीपुल’ नामक अंग्रेजी साप्ताहिक का प्रकाशन किया। इन समाचार पत्रों तथा अन्य लेखों द्वारा उन्होंने लोगों को मातृभूमि की रक्षा हेतु बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। 1928 ई. में अपनी मृत्यु तक वे भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते रहे इस बीच उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उन्होंने ‘होमरूल आंदोलन’ तथा किसानों के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विपिन चंद्र पाल – विपिन चंद्र पाल को राष्ट्रीय आंदोलन के महान नेताओं में से एक माना जाता है। उन्होंने बंगाली तथा अंग्रेजी में कई समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। विपिन चंद्र पाल ने अपने ‘न्यू इंडिया’ नामक समाचार पत्र द्वारा उदारवादियों के कार्यक्रम एवं विधियों का खंडन किया और विदेशी शासन के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया।

अरविंद घोष – अरविंद घोष ने भी अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में देशभक्ति एवं आत्मविश्वास की भावना जागृत की और उन्हें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

ख) राष्ट्रवादियों का लक्ष्य – राष्ट्रवादियों का लक्ष्य स्वराज की प्राप्ति था जिसे वे भारतीयों का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। वे ब्रिटिश शासन को समाप्त करके भारतीय प्रशासन भारतीयों को ही सौंपने के पक्ष में थे। राष्ट्रवादी समझते थे कि स्वराज के बिना देश की औद्योगिक, व्यापारिक तथा शैक्षिक उन्नति नहीं हो सकती और न ही भारतीयों को उनके मौलिक अधिकार प्राप्त हो सकते हैं।

ग) विचारधारा एवं कार्यक्रम – राष्ट्रवादी नेताओं को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में तनिक भी विश्वास नहीं था। इनका विश्वास था कि भारत में जब तक ब्रिटिश शासन रहेगा तब तक सरकार की नीतियों से केवल ब्रिटिश उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को ही लाभ होगा। ब्रिटिश शासन के रहते हुए भारत के व्यापार, उद्योगों, शिक्षा, लोक कल्याण कार्यों आदि का उचित विकास नहीं हो सकेगा। अतः वे ब्रिटिश शासन से घृणा करते थे। इन नेताओं का मूल मंत्र ब्रिटिश शासन के विरुद्ध शक्तिशाली जन आंदोलन चला कर स्वराज की प्राप्ति था। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जोरदार ‘स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन’ चलाने का समर्थन किया और इसे देशव्यापी जन आंदोलन बनाने तथा इसमें समाज के सभी वर्गों को शामिल करने पर बल दिया।

घ) राष्ट्रवादियों की कार्यविधि – राष्ट्रवादी नेताओं का मत था कि केवल प्रार्थना पत्रों, प्रस्तावों, प्रदर्शनों, सभाओं एवं भाषणों द्वारा ब्रिटिश सरकार से मांगे पूरी नहीं करवाई जा सकती। वे इन्हें दुर्बलता का साधन समझते थे और इन्हें राजनीतिक भीख मानते थे। राष्ट्रवादी नेता ब्रिटिश शासन के विरुद्ध शक्तिशाली जन आंदोलन चलाने के पक्षधर थे। उन्होंने ब्रिटिश शासन् के विरुद्ध व्यापक स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन चलाने का जोरदार समर्थन किया।

ड.) उदारवादियों और राष्ट्रवादियों में मतभेद – दोनों की मांगे, लक्ष्य, साधन और विचारधारा अलग-अलग थी इसलिए दोनों के बीच गहरे मतभेद थे। 1905 ई. में ‘बंगाल विभाजन’ के पश्चात् उदारवादियों एवं राष्ट्रवादियों में स्वदेशी और बहिष्कार को लेकर विवाद हो गया तथा कांग्रेस के 1906 ई. के कलकत्ता के अधिवेशन में भी दोनों के बीच इस मुद्दे पर आम सहमति नहीं बनी और इन दोनों दलों में मतभेद बढ़ते गए। 1907 ई. के सूरत अधिवेशन में तिलक और उनके साथी कांग्रेस से अलग हो गए। उदारवादी ब्रिटिश शासन के अधीन प्रशासनिक सुधार करना चाहते थे परंतु राष्ट्रवादियों का उद्देश्य स्वराज प्राप्ति था। 1905 ई. से 1918 ई. तक राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर राष्ट्रवादियों के हाथ में रही। इन राष्ट्रवादियों ने बंग-भंग, स्वदेशी, बहिष्कार तथा होमरूल आंदोलन चलाकर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जुझारू बनाया।

बंग-भंग विरोधी आंदोलन –

1899 ई. में लार्ड कर्जन भारत के वायसराय नियुक्त हुए। उन्होंने राष्ट्रवादी नेताओं के प्रति बहुत कठोर व्यवहार अपनाया। 1905 ई. में लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो भागों में विभाजित करने के आदेश जारी कर दिए। ब्रिटिश सरकार ने बंगाल विभाजन का यह कारण बताया कि बंगाल बहुत बड़ा प्रांत है और उसका प्रशासन सुचारू रूप से चलाना बहुत कठिन है परंतु वास्तव में अंग्रेज़ सरकार भारत में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर करना चाहती थी। इस विभाजन का उद्देश्य हिंदू-मुस्लिम एकता को नष्ट करना था।

बंग-भंग विरोधी आंदोलन – बंगाल के राष्ट्रवादियों ने बंगाल विभाजन का घोर विरोध किया। राष्ट्रवादियों द्वारा बंगाल विभाजन को पूर्व नियोजित घृणित कार्य कहा गया। बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप ‘बंग-भंग विरोधी आंदोलन’ आरंभ हुआ। 16 अक्टूबर, 1905 ई. को बंगाल विभाजन लागू किया जाना था। इस दिन को ‘शोक दिवस’ घोषित किया गया, समस्त बंगाल में हड़ताल रखी गई, जुलूस निकाले गए और विरोध में सभाएँ आयोजित की गई। सारा बंगाल ‘वंदे मातरम्’ के नारों से गूंज उठा। नेताओं की अपील पर लोगों ने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार कर दिया और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने का प्रण लिया। यह आंदोलन केवल बंगाल तक ही सीमित न रह कर अन्य भागों में भी फैल गया। अंततः सरकार को इन राष्ट्रवादियों द्वारा उठाए गए तूफान के आगे झुकना पड़ा और 1911 ई. में बंगाल विभाजन रद्द करना पड़ा।

स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन –

1905 ई. में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल विभाजन का आदेश इसलिए दिया क्योंकि अंग्रेजी सरकार बंगाल में बढ़ रही राष्ट्रीयता को कुचलना चाहती थी। इसके अंतर्गत बंगाल को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। पूर्वी बंगाल व पश्चिमी बंगाल, तो बंगाल के लोगों में असंतोष की लहर दौड़ गई। ब्रिटिश सरकार के इस राष्ट्र विरोधी कार्य के विरुद्ध लोगों ने सभाएँ एवं प्रदर्शन किए परंतु ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्रवादियों की एक न सुनी। विवश होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन आरंभ कर दिया।

क) उद्देश्य –

  • विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके ब्रिटिश सरकार के आर्थिक हितों को हानि पहुँचाना।
  • स्वदेशी वस्तुओं का अत्यधिक प्रचार करके भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देना।
  • लोगों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एकता स्थापित करना तथा देश-प्रेम की भावना जागृत करना।

ख) कार्यक्रम – स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन बंगाल से आरंभ हुआ परंतु शीघ्र ही देश के अन्य भागों में भी फैल गया। इस आंदोलन में ज़मींदारों, व्यापारियों, वकीलों, विद्यार्थियों तथा स्त्रियों ने भी भाग लिया। इस आंदोलन में जनसभाओं द्वारा लोगों को स्वदेशी वस्तुएँ अपनाने की प्रार्थनाएँ की गई तथा सार्वजनिक सभाएँ की गईं जहाँ स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की शपथ ली गई। विदेशी वस्तुएँ बेचने वाली दुकानों के सामने धरने दिए गए। अनेक स्थानों पर विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई जिससे लोगों में इतनी जागृति आ गई कि उन्होंने उन समारोहों में जाना बंद कर दिया जहाँ विदेशी वस्तुओं का प्रयोग होता था। लोगों ने विदेशी उपहार लेने बंद कर दिए।

ग) आंदोलन का प्रभाव – स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन ने भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना पर निम्न प्रभाव डाले जो इस प्रकार हैं :

  • इस आंदोलन से भारतवासियों में राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावना बढ़ने लगी।
  • इस आंदोलन से लोगों में स्वदेशी वस्तुओं का प्रचलन अत्यधिक बढ़ गया।
  • इससे भारतीय उद्योगों का अपार विकास हुआ। इस आंदोलन के फलस्वरूप देश के विभिन्न भागों में कपड़ा मिलें, साबुन और दियासलाई के कारखाने लग गए।
  • स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने साहित्य पर विशेष प्रभाव डाला। उस समय राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत कई कविताओं, गद्य, गीत आदि की रचना हुई।
  • इस आंदोलन में पहली बार भारतीय महिलाओं ने भी भाग लिया। कई स्थानों पर जुलूसों और धरनों में उन्होंने भाग लिया।
  • स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन ने बंग-भंग के विरुद्ध लोगों को संगठित कर दिया और विवश होकर ब्रिटिश सरकार को 1911 ई. में बंगाल विभाजन रद्द करना पड़ा।
  • इस आंदोलन के परिणामस्वरूप ही राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों का महत्व कम हो गया और राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर राष्ट्रवादियों के हाथ में आ गई। इस राष्ट्रीय आंदोलन के परिणामस्वरूप आंदोलनकारियों को संतुष्ट करने के लिए 1909 ई. में ब्रिटिश सरकार ने ‘इंडियन कौंसिल एक्ट’ पास किया। इस एक्ट के अनुसार भारतीय प्रशासनिक प्रणाली में कुछ सुधार किए, जिन्हें ‘मार्ले-मिण्टो सुधार’ के नाम से जाना जाता है।

1909 ई. का इंडियन कौंसिल एक्ट – यह एक्ट मार्ले-मिण्टो सुधार के नाम से भी जाना जाता है। यह एक्ट वास्तव में 1892 ई. के एक्ट का ही एक विस्तृत रूप था। ब्रिटिश सरकार ने 1909 ई. में मिंटो मार्ले अधिनियम में पास किया जिसकी मुख्य धाराएं निम्नलिखित है –

  1. इस एक्ट के अनुसार केंद्रीय विधान परिषद के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या अधिकतम 60 कर दी गई। प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों की संख्या भी बढ़ाकर 30 से 50 रखी गई परंतु फिर भी केंद्रीय विधान परिषद में सरकारी अधिकारियों का बहुमत बना रहा।
  2. एक्ट के अनुसार गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय की नियुक्ति की भी घोषणा की गई थी।
  3. 1909 ई. के एक्ट द्वारा परिषदों के कार्यों में भी वृद्धि की गई। सदस्यों को प्रस्ताव प्रस्तुत करने और बजट पर चर्चा करने का अधिकार दिया गया परंतु सेना, विदेशी शक्तियों तथा भारतीय शासकों से संबंधित प्रस्ताव लाने की मनाही थी।
  4. 1909 ई. के एक्ट का सबसे घिनौना पक्ष भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता का आरंभ था। इन सुधारों के अनुसार केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों में मुसलमानों की सदस्य संख्या निश्चित कर दी गई और इनका चुनाव मुसलमानों द्वारा ही किया जाना निश्चित कर दिया। इसके फलस्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों में आपसी मतभेद बढ़ने लगे।
  5. इस एक्ट के अनुसार कुछ ही व्यक्तियों को उनकी शिक्षा, संपत्ति करों तथा उपाधियों के आधार पर वोट देने का अधिकार दिया गया।

वास्तव में 1909 ई. के सुधारों का उद्देश्य उदारवादियों को उलझन में डालना, राष्ट्रवादियों में फूट डालना और भारतीयों में बढ़ती एकता को रोकना व साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना था।

लखनऊ समझौता –

सर सैयद अहमद खाँ और आगा खाँ जैसे शिक्षित मुसलमानों ने कहा था कि ‘अल्पसंख्यक मुसलमान ब्रिटिश शासन को सहयोग देकर ही सुरक्षित रह सकते हैं।” इस प्रकार की विचारधारा रखने वाले मुसलमानों तथा ब्रिटिश सरकार के सहयोग से ही भारत में 1906 ई. में ‘मुस्लिम लीग’ की स्थापना हुई। यह स्थापना साम्प्रदायिक आधार पर हुई क्योंकि मुस्लिम लीग की सदस्यता केवल मुसलमानों के लिए निर्धारित थी जिससे भारत में सांप्रदायिकता की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् मुस्लिम लीग के नेता कांग्रेस से हट कर ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने लगे परंतु प्रथम विश्वयुद्ध (1914 ई.-1918 ई.) आरंभ होने से पूर्व अनेक घटनाएँ घटी जिस कारण मुसलमानों का ब्रिटिश सरकार से विश्वास उठने लगा। 1916 ई. में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का संयुक्त अधिवेशन लखनऊ में हुआ और दोनों में समझौता हो गया जो ‘लखनऊ पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। कांग्रेस में इस समझौते द्वारा मुस्लिम लीग के इस सुझाव को स्वीकार कर लिया कि विधान परिषदों में मुसलमानों की निश्चित सदस्य संख्या होनी चाहिए और उनका चुनाव पृथक चुनाव प्रणाली द्वारा होना चाहिए। यह कांग्रेस की ‘मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति’ का आरम्भ था । 1916 ई. में श्रीमती एनी बेसेंट तथा कुछ अन्य नेताओं के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप उदारवादियों और राष्ट्रवादियों में समझौता हो गया, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन को अधिक बल मिला।

होमरूल आंदोलन –

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अनेक भारतीय नेताओं ने समझ लिया था कि अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार पर जनता का दबाव बनाना आवश्यक है इसलिए एक वास्तविक जन आंदोलन आवश्यक था। ऐसे में 1915 ई. – 1916 ई. में भारत में एक नए प्रकार का आंदोलन आरंभ हुआ जिसे ‘होमरूल आंदोलन’ कहा जाता है। इसके मुख्य नेता श्रीमती एनी बेसेंट तथा बाल गंगाधर तिलक थे।

क) होमरूल लीग की स्थापना – श्रीमती एनी बेसेंट आयरलैंड की उदार विचारों की महिला थी। उन्होंने आयरलैंड के होमरूल आंदोलन से प्रभावित होकर 1916 ई. में मद्रास में होमरूल लीग की स्थापना की। शीघ्र ही इसकी शाखाएँ कानपुर, इलाहाबाद, मुंबई, बनारस, मथुरा आदि नगरों में स्थापित हो गई। श्रीमती एनी बेसेंट ने ‘न्यू इंडिया’ नामक समाचार पत्र द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारतीयों के लिए होमरूल का प्रचार किया।

श्रीमती एनी बेसेंट के होमरूल आंदोलन से प्रभावित होकर बाल गंगाधर तिलक ने पूना में इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की। होमरूल लीग का उद्देश्य स्वराज के अधिकार का प्रचार करना था।

बाल गंगाधर तिलक ने पूना में तथा श्रीमती एनी बेसेंट ने मद्रास में अपनी अलग-अलग होमरूल लीग स्थापित की थी परंतु वे दोनों राष्ट्रहित में एक दूसरे का सहयोग करने लगे। उन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और स्थान-स्थान पर लोगों को संबोधित किया और होमरूल का प्रचार किया। इन दोनों नेताओं के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप भारत के विभिन्न नगरों में होमरूल लीग की कई शाखाएँ स्थापित की गई और हजारों की संख्या में लोग होमरूल के सदस्य बन गए। बहुत से राष्ट्रीय नेता जैसे एम. ए. अंसारी, शंकर लाल, नेकीराम शर्मा आदि होमरूल लीग में शामिल हो गए तथा एकजुट होकर स्वराज की मांग करने लगे। बाल गंगाधर तिलक ने हरियाणा के नेकी राम शर्मा को मध्य प्रदेश व बरार क्षेत्र में होमरूल आंदोलन की कमान सौंपी थी।

ख) ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति – यद्यपि यह आंदोलन शांतिपूर्ण था परंतु युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार किसी भी प्रकार का आंदोलन सहन नहीं कर सकती थी। अतः ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीति अपनाते हुए सन् 1916 ई. में एनी बेसेंट को मध्य प्रदेश तथा बरार से बाहर निकाल दिया। इसी प्रकार तिलक के पंजाब और दिल्ली आने पर प्रतिबंध लगा दिया। जून 1917 ई. में श्रीमती एनी बेसेंट को मद्रास में उनके सहयोगियों के साथ बंदी बना लिया। इसी समय बहुत से बड़े नेता आंदोलन में शामिल हो गए और उन्होंने सरकार पर दबाव बनाना आरंभ कर दिया। जनता ने देश भर में हड़तालें एवं प्रदर्शन किए। लोगों के बढ़ते हुए जोश को देखते हुए सरकार को अंत में झुकना पड़ा और श्रीमती बेसेंट तथा उनके सहयोगियों को जेल से मुक्त कर दिया।

ग) आंदोलन का महत्व – भारतवासियों में विशेष उत्साह तथा निडरता की भावना देखी गई। बेसेंट और तिलक देश के लोकप्रिय नेता बन गए। इस आंदोलन का प्रभाव देश के बाहर भी हुआ। अमेरिका तथा इंग्लैंड के उदार विचारों के नेता भारत को स्वराज देने का समर्थन करने लगे। भारतीयों को संतुष्ट करने के लिए अगस्त 1917 ई. को भारत मंत्री मांटेग्यू ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की जिसके अनुसार भारतीयों को यह विश्वास दिलाया गया कि स्वशासन संबंधी संस्थाओं का विकास किया जाएगा, प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में भारतीयों को अधिक से अधिक संख्या में सम्मिलित किया जाएगा तथा धीरे-धीरे स्वराज स्थापित किया जाएगा।

कुछ महत्वपूर्ण तिथियां –

  1. तिलक द्वारा गणपति उत्सव का आरंभ – 1893 ई.
  2. तिलक द्वारा शिवाजी उत्सव का आरंभ – 1895 ई.
  3. बंगाल का विभाजन – 1905 ई.
  4. कांग्रेस में विभाजन – 1907 ई.
  5. मार्ले मिण्टो अधिनियम – 1909 ई.
  6. बंगाल विभाजन रद्द हुआ – 1911 ई.
  7. कांग्रेस मुस्लिम लीग में लखनऊ समझौता – 1917 ई.
  8. लाला लाजपत राय की मृत्यु – 1928 ई.

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