उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद Class 10 इतिहास Chapter 7 Notes – भारत एवं विश्व HBSE Solution

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उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद Class 10 इतिहास Chapter 7 Notes


सोलहवीं सदी में पुनर्जागरण एवं धर्म सुधार आंदोलन के परिणामस्वरूप यूरोप का राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जागरण हुआ। इस जागरण से विश्व में आधुनिक युग की शुरुआत हुई जिसका नेतृत्व यूरोप ने किया। अपने तैयार माल को बेचने एवं अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल प्राप्त करने के लिए यूरोप के देश एशिया एवं अफ्रीका के विशाल भू-भागों की तरफ आकर्षित हुए व इन भागों पर अपना आर्थिक एवं राजनीतिक आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करने लगे। इसी आधिपत्य के प्रयासों को उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का नाम दिया जाता है।

उपनिवेशवाद – किसी शक्तिशाली देश द्वारा दूसरे निर्बल और गरीब देशों को अपने अधीन लेकर उनसे आर्थिक लाभ उठाने की प्रवृति उपनिवेशवाद कहलाती है। इसका मुख्य आधार वाणिज्यवाद था। इस प्रकार की नीति का अनुसरण यूरोप में सामान्यतः 1500 ई. से 1750 ई. के बीच किया गया। उन्नीसवीं शताब्दी में इसे साम्राज्यवाद नाम दिया गया।

इस काल में यूरोप के लोगों ने विश्व के विभिन्न भागों में उपनिवेश बनाये। इस काल में उपनिवेशवाद में विश्वास के मुख्य कारण थे :

  • लाभ कमाने की लालसा।
  • मातृदेश की शक्ति बढ़ाना।
  • मातृदेश में सजा से बचना।
  • स्थानीय लोगों का धर्म बदलवाकर उन्हें उपनिवेशिक धर्म में शामिल करना।

वास्तविकता में उपनिवेशवाद का अर्थ था- आधिपत्य, विस्थापन एवं मृत्यु । उपनिवेश को मातृदेश के साम्राज्य का भाग बना लिया जाता था।

उपनिवेशों की स्थापना के कारण – व्यापारिक क्रांति को सफल बनाने में भौगोलिक खोजों के साथ ही उपनिवेशवाद का आरंभ हुआ। स्पेन, पुर्तगाल, डच, फ्रांस एवं इंग्लैण्ड आदि यूरोपीय देशों ने सुदूर देशों में उपनिवेश स्थापित किए। यूरोप में उपनिवेशवाद के आरंभ के निम्नलिखित कारण थे :-

1. ट्रिपल ‘जी’ नीति (Gold-Glory -God) – अमेरिका की खोज ने यूरोपीय देशों में स्वर्ण संग्रह की प्रतिस्पर्धा आरंभ की। समस्त यूरोप में ‘अधिक स्वर्ण, अधिक समृद्धि, अधिक कीर्ति’ का नारा बुलंद हुआ। अब समस्त यूरोपीय राष्ट्रों का प्रमुख ध्यान सोना, कीर्ति एवं ईश्वर पर केन्द्रित हो गया। उपनिवेशों की स्थापना से यूरोपीय देशों को सोना भी मिला, कीर्ति भी फैली एवं धर्म का प्रचार भी हुआ।

2. कच्चे माल की प्राप्ति – व्यापारिक समृद्धि से कई उद्योगों की स्थापना हुई। यूरोप में इन उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चे माल की कमी थी। अतः यूरोपीय देशों ने कच्चे माल की प्राप्ति हेतु अफ्रीकी एवं एशियाई देशों में उपनिवेशों की स्थापना की।

3. निर्मित माल की खपत –  सभी यूरोपीय देश आर्थिक संरक्षण की नीति पर चल रहे थे, अत: इस निर्मित माल को बेचने के लिए भी उपनिवेशों की स्थापना की गयी। अतः प्रत्येक उपनिवेश को शक्तिशाली राष्ट्रों द्वारा जबरन निर्मित माल की खरीद व कच्चे माल के निर्यात हेतु बाध्य किया गया।

4. जनसंख्या में वृद्धि – यूरोप में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप नगरों की जनसंख्या में अत्याधिक वृद्धि हुई। कालांतर में अतिशेष जनसंख्या को बसाने के लिए भी उपनिवेशों की स्थापना को बल मिला।

5. प्रतिकूल जलवायु – यूरोपवासियों को व्यापारिक प्रगति एवं नवीन देशों से संपर्क से कई नवीन वस्तुओं का भी ज्ञान हुआ, आलू, तंबाकू, भुट्टा आदि का ज्ञान भी उन्हें पूर्वी देशों के साथ संपर्क से ही हुआ। गर्म मसाले, चीनी, कॉफी, चावल आदि के भी अब वे आदी हो गये थे। प्रतिकूल जलवायु के कारण ये सभी वस्तुएँ यूरोपीय देशों में उगाना संभव न था। इसीलिए अनुकूल जलवायु वाले स्थानों में उपनिवेश स्थापित किए।

6. समृद्धि की लालसा – प्रारंभिक उपनिवेश पुर्तगाल एवं स्पेन ने स्थापित किये। इससे परिणामस्वरूप उनकी समृद्धि में आशातीत वृद्धि हुई। अत: इनकी समृद्धि को देखते हुए समृद्धि की लालसा में अन्य यूरोपीय देश भी उपनिवेश स्थापित किए।

साम्राज्यवाद – जब कोई शक्तिशाली एवं उन्नत देश किसी कमजोर और पिछड़े हुए देश पर बलपूर्वक अपना अधिकार स्थापित करता है और उसका राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से शोषण करता है तब उस शक्तिशाली देश की इस इच्छा और प्रवृत्ति को साम्राज्यवाद कहा जाता है। साम्राज्यवादी देश जिस देश पर अपना अधिकार स्थापित करता है वह देश उस साम्राज्यवादी देश का उपनिवेश कहलाता है। ऐसी अवस्था में साम्राज्यवादी देश शासित देशों की जनता के हितों की उपेक्षा कर अपने देश के हितों के लिए उनका शोषण करते हैं। साम्राज्यवादी देश उपनिवेश के आर्थिक एवं प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर शोषण करता है।

अठारहवीं शताब्दी में गृह उद्योगों के स्थान पर बड़े बड़े कारखानों का निर्माण हुआ जिसके कारण हाथ की अपेक्षा मशीन से तथा घर की अपेक्षा कारखानों में तथा कम की अपेक्षा अधिक उत्पादन होने लगा। इन परिवर्तनों को “औद्योगिक क्रांति” कहा जाता है। सर्वप्रथम इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई।

इन औद्योगिक देशों में विभिन्न वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक उत्पादन किया जाने लगा। फलस्वरूप इस अधिक माल को बेचने के लिए नए बाजार खोजना आवश्यक हो गया। साथ ही इन औद्योगिक देशों को अपने उद्योगों को चलाने के लिए कच्चे माल की भारी आवश्यकता महसूस होने लगी। इन देशों की ये आवश्यकताएँ एशिया और अफ्रीका के देशों से पूरी की जाने लगी क्योंकि औद्योगिक दृष्टि से ये देश पिछड़े हुए थे। यूरोप के औद्योगिक देशों, संयुक्त राज्य अमेरिका एवं जापान ने एशिया तथा अफ्रीका के पिछड़े देशों को अपने अधीन करना आरंभ कर दिया जिसने साम्राज्यवादी व्यवस्था को जन्म दिया।

साम्राज्यवाद के प्रसार में सहायक परिस्थितियाँ – उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में साम्राज्यवाद की भावना के विकास के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन सब का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है :-

1. यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रांति – उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में लघु उद्योगों का स्थान बड़े-बड़े कारखानों ने ले लिया जिससे बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा। उत्पादन बढ़ने से कच्चे माल की कमी महसूस की जाने लगी। आवश्यकता से अधिक उत्पादन होने से तैयार की गई वस्तुओं को बेचने के लिए भी नई मंडियों की आवश्यकता होने लगी। परिणामस्वरूप इन देशों ने एशिया एवं अफ्रीका के बहुत से देशों पर अधिकार कर लिया।

2. यूरोपीय देशों में अतिरिक्त पूँजी – औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप यूरोप के देशों में अत्यधिक धन इकट्ठा हो गया। उन देशों में बड़े-बड़े पूँजीपतियों का एक वर्ग तैयार हो गया। उनके अपने देशों में ब्याज की दरें बहुत कम थी। यह देखकर बड़े-बड़े पूँजीपति यही अच्छा समझते थे कि अतिरिक्त धन अपने देश के उपनिवेशों में रेल, खानों, कारखानों आदि में लगाया जाए ताकि उन्हें पर्याप्त लाभ भी मिले और उनकी पूँजी भी सुरक्षित रहे। इस प्रकार यूरोपीय देशों के पूँजीपतियों ने अपनी सरकारों को उपनिवेश स्थापना के लिए प्रेरित किया।

3. ईसाई धर्म प्रचारकों का योगदान – एशिया और अफ्रीका की पिछड़ी जातियों में ईसाई धर्म फैलाने के लिए यूरोप के ईसाई पादरियों से भी साम्राज्यवाद को भरपूर समर्थन मिला। पादरी लोग नए उपनिवेशों की स्थापना से बहुत प्रसन्न होते थे क्योंकि उन्हें ईसाई धर्म फैलाने का एक नया क्षेत्र मिल जाता था।

4. यूरोपियन राष्ट्रवाद की भावना – उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सभी यूरोपीय राष्ट्र विश्व की महान शक्ति बनने के इच्छुक हो गए थे और वे एक दूसरे से अधिक उपनिवेश प्राप्त करके अधिक शक्तिशाली बनना चाहते थे । इसलिए यूरोपीय राष्ट्रों के बीच उपनिवेशों के लिए दौड़ चल पड़ी।

5. सभ्य बनाने का अभियान – यूरोपीय लोग अपने आपको अधिक सभ्य और श्रेष्ठ मानते थे। वे एशिया एवं अफ्रीका के लोगों को हीन तथा असभ्य मानते थे। यूरोपीय देशों के अनुसार केवल उनकी सभ्यता ही विश्व में विकसित सभ्यता थी। उन्होंने अपनी-अपनी सभ्यता का विकास अविकसित देशों में करना आवश्यक समझा।

6. यातायात और संचार के साधन – यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप यातायात एवं संचार के साधनों का भी विकास हुआ। भाप की शक्ति से चलने वाले जहाजों तथा तार के आविष्कार के परिणामस्वरूप दूर-दूर के देशों पर अधिकार करना एवं उन पर शासन करना आसान हो गया।

7. एशिया एवं अफ्रीका में अनुकूल परिस्थितियाँ – एशिया एवं अफ्रीका के कारीगर तथा शिल्पकार यद्यपि उत्तम वस्तुएँ तैयार करते थे परंतु मशीनों की अपेक्षा हाथों से तैयार की गई ये वस्तुएँ सीमित मात्रा में और महंगी होती थी जो यूरोपीय कारखानों में मशीनों से ज्यादा मात्रा में तैयार की गई सस्ती वस्तुओं के सामने कहीं नहीं ठहरती थी।

साम्राज्यवाद का विकास —

एशिया में साम्राज्यवाद – एशिया एक ऐसा महाद्वीप था जहाँ से अनेक प्रकार का कच्चा माल जैसे कपास, चाय, नील, कॉफी, तंबाकू, चीनी, कोयला, लोहा, टिन, तांबा इत्यादि प्रचुर मात्रा में प्राप्त किया जा सकता था। यूरोपीय देश यहाँ अपने उपनिवेश स्थापित करके निर्मित माल को उनके बाजारों में अधिक लाभ में बेच सकते थे। एशिया में उपनिवेश स्थापित करने वाले प्रमुख यूरोपीय देश इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड, जर्मनी तथा रूस थे।

1. इंग्लैंड के उपनिवेश – यूरोपीय शक्तियों में सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति इंग्लैंड थी।

क) भारत – भारत के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से पुर्तगाली, डच, अंग्रेज और फ्रांसीसी लोग भारत आए। कुछ समय तक पुर्तगाली एवं डच शक्तियों ने भारत में व्यापार किया परंतु अट्ठारहवीं शताब्दी के आरंभ में उनकी शक्ति भारत में लगभग समाप्त हो गई। अब भारत में केवल अंग्रेज और फ्रांसीसी ही रह गए। इन दोनों शक्तियों में भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उद्देश्य 1744 ई.से 1763 ई. के बीच कर्नाटक के तीन युद्ध हुए जिनमें अंतिम विजय अंग्रेजों की हुई।

इससे पूर्व 1757 ई. में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को प्लासी के युद्ध में हरा कर अंग्रेज बंगाल में अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित कर चुके थे। 1764 ई. में बक्सर के युद्ध में उन्होंने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली थी। अंग्रेजों ने मैसूर पर भी 1799 ई. में टीपू सुल्तान को हराने के पश्चात् अधिकार कर लिया। 1818 ई. तक उन्होंने मराठा युद्धों के परिणामस्वरूप मराठा शक्ति को समाप्त कर दिया। अंग्रेजों ने 1843 ई. में सिंध तथा 1849 ई. में पंजाब पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार 1856 ई. में लॉर्ड डलहौजी के काल तक अंग्रेजों का लगभग सारे भारत पर अधिकार हो चुका था।

ख) बर्मा – इंग्लैंड ने बर्मा के विरुद्ध तीन युद्ध किए। ये युद्ध 1824 ई. से 1885 ई. के बीच किए। इन युद्धों के परिणामस्वरूप बर्मा के समस्त प्रदेश ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिए गए।

ग) श्रीलंका – श्रीलंका पर पहले पुर्तगालियों ने, फिर डच लोगों ने और अंत में अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने लंका में चाय और रबड़ के बाग लगाकर अत्यधिक धन कमाया। इंग्लैंड का श्री लंका पर अधिकार 1948 ई. तक कायम रहा।

घ) मलाया – अंग्रेज ने 1840 ई. में सिंगापुर को अपने अधिकार में ले लिया और 1865 ई. में अंग्रेजों ने मलाया प्रायद्वीप पर भी अधिकार कर लिया।

ड) तिब्बत – 1904 ई. में तिब्बत को पराजित करने के पश्चात् दलाई लामा के साथ हुई संधि के अनुसार ब्रिटिश भारत तथा तिब्बत के बीच व्यापार आरंभ हो गया और तिब्बत व्यावहारिक रूप से अंग्रेजों के प्रभाव में आ गया।

2. हॉलैंड के उपनिवेश – हॉलैंड के डचों ने व्यापार करने तथा उपनिवेश स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम दक्षिण पूर्वी देशों के द्वीपों की ओर ध्यान दिया। 1602 ई. में डचों ने पुर्तगालियों को हराने के पश्चात बैंटम में अपने कारखाने खोले और यह उनका महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। 1605 ई. में डचों ने पुर्तगालियों से एम्बोयना को विजित कर लिया। 1619 ई. में उन्होंने जकार्ता को भी जीत लिया और बाटेविया को अपनी राजधानी बना लिया। इस प्रकार डचों का जावा, सुमात्रा तथा बोर्नियो पर अधिकार हो गया। 1641 ई. में डचों ने पुर्तगालियों से मलक्का भी प्राप्त कर लिया। इसके फलस्वरूप हॉलैंड का गर्म मसालों के द्वीपों पर प्रभाव बहुत बढ़ गया।

3. पुर्तगाल के उपनिवेश – 1498 ई. में पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा ने भारत आने के लिए नए समुद्री मार्ग का पता लगाया। इससे पुर्तगालियों ने भारत तथा अन्य पूर्वी देशों में अपने उपनिवेश स्थापित किए। सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने  भारत में गोवा, दमन-दीव, दादरा-नगर हवेली आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

4. फ्रांस के उपनिवेश 

क) पांडिचेरी, चंद्रनगर, मॉरीशस, माही आदि – फ्रांस ने भारत में 1674 ई. में पांडिचेरी के स्थान पर अपनी बस्तियाँ स्थापित की और पांडिचेरी को फ्रांस ने अपनी भारतीय बस्तियों की राजधानी बनाया। इसके पश्चात् चंद्रनगर में भी फ्रांसीसी बस्तियाँ स्थापित की गई। फ्रांसीसी कंपनी ने 1721 ई. में मॉरीशस पर अधिकार कर लिया। 1725 ई. में मालाबार तट पर स्थित माही के स्थान पर और 1739 ई. में कालीकट में भी फ्रांसीसी बस्तियाँ स्थापित कर ली।

ख) दक्षिण पूर्वी एशिया के उपनिवेश – फ्रांस नें 1862 ई. चीन में तथा 1865 ई. में कंबोडिया में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली। 1885 ई. में ही फ्रांस ने चीन को पराजित कर के टांकिन्ग तथा अनाम पर अधिकार कर लिया। इन सभी देशों को सामूहिक रूप से फ्रांसीसी इण्डोचीन कहा जाता है।

5. जर्मनी के उपनिवेश – जर्मनी ने न्यू गुयाना के उत्तर पूर्वी-भाग पर अधिकार कर लिया। 1898 ई. में उसने चीन से क्योचू का प्रदेश ठेके पर ले लिया। जर्मनी ने प्रशांत महासागर में कैरोलिन द्वीप तथा मार्शल द्वीप पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

6. रूस के उपनिवेश – 1864 ई. में रूस ने खोकंद, बुखारा एवं खीवा पर अधिकार कर लिया। 1865 ई. में रूस ने ताशकन्द को रूसी साम्राज्य में मिला लिया। 1867 ई. में तुर्किस्तान का नया प्रांत रूसी साम्राज्य में मिलाया गया और 1868 ई. में समरकंद पर भी रूस ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया। 1818 ई. में रूस ने चीन में लियोतुंग के महत्वपूर्ण प्रायद्वीप का 25 वर्षों के लिए ठेका प्राप्त कर लिया।

7. चीन में उपनिवेशवाद – इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, रूस, अमेरिका और यहाँ तक कि जापान ने भी चीनी प्रदेशों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेने का प्रयत्न किया। आरंभ में इंग्लैंड और फ्रांस ने चीन के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। दो अफीम युद्धों 1839 ई. से 1842 ई. तथा 1854-1858 ई. में चीन की हार हुई जिसके परिणामस्वरूप उसे पहले अपनी 5 और फिर 9 बंदरगाहें विदेशी व्यापार के लिए खोलनी पड़ी और हांगकांग पर भी अंग्रेजी अधिकार स्वीकार करना पड़ा।

1895 ई. में जापान ने चीन को एक युद्ध में पराजित कर उसके कोरिया और फारमोसा आदि भागों पर अधिकार कर लिया। रूस ने भी मंचूरिया के एक बड़े भाग और पोर्ट आर्थर की प्रसिद्ध बंदरगाह पर अधिकार कर लिया। जर्मनी ने 1897 ई. मे क्योचू पर अपना अधिकार जमा लिया। 1898 ई. में फ्रांस ने क्वांगचू प्रांत को हथिया लिया और उसी वर्ष अंग्रेजों ने बेई-हे-बेई को अपने अधीन कर लिया। देश को विभाजन से बचाने के लिए चीन ने ‘खुले द्वार की नीति’ का समर्थन किया और अपनी सभी बंदरगाह सभी विदेशियों के लिए खोल दी।

अफ्रीका में साम्राज्यवाद – अफ्रीका को ‘अंध महाद्वीप’ कहा जाता था। 1875 ई. के पश्चात यूरोपीय शक्तियों ने अफ्रीका में अधिक से अधिक उपनिवेश बनाने शुरू कर दिए। अफ्रीका के इस विभाजन में बेल्जियम, पुर्तगाल, इंग्लैंड, फ्रांस तथा जर्मनी ने भाग लिया।

क) बेल्जियम के उपनिवेश – बेल्जियम के शासक सम्राट लियोपोड द्वितीय की सहायता से हेनरी स्टेनले नामक एक साहसी व्यक्ति ने 1878 ई. में कांगो के प्रदेश पर अधिकार कर लिया। कांगो नदी के आसपास के क्षेत्रों को मिलाकर 1908 ई. में इसे ‘कांगो फ्री स्टेट’ का नाम दिया गया।

ख) इंग्लैंड के उपनिवेश – इंग्लैंड ने अफ्रीका में केप ऑफ गुड होप, नटाल, ट्रांसवाल तथा औरेंज फ्री स्टेट में अपने उपनिवेश स्थापित किए। 1909 ई. में इंग्लैंड ने रोडेशिया, टंगानिका, गोल्डकोस्ट, जांबिया, नाइजीरिया, सोमालीलैंड में भी अपने उपनिवेश स्थापित कर लिए। अफ्रीका में इंग्लैंड के सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश मिस्र और सूडान थे। स्वेज नहर के खुलने के पश्चात् इंग्लैंड के लिए इन क्षेत्रों का महत्व बहुत बढ़ गया था।

ग) फ्रांस के उपनिवेश – फ्रांस ने अफ्रीका में अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, सेनीगल, मोरक्को, पश्चिमी गिनी तथा मेडागास्कर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

घ) पुर्तगाल के उपनिवेश – पुर्तगाल ने कांगो के निकट दक्षिण में अंगोला की बस्ती प्राप्त की। पुर्तगाल ने अफ्रीका के दक्षिण-पूर्व में स्थित मोजांबिक तथा उसके साथ के प्रदेश भी आसानी से प्राप्त कर लिए। इस उपनिवेश को ‘पुर्तगाली पूर्वी अफ्रीका’ कहा जाता था।

ड) जर्मनी के उपनिवेश – 1883 ई. में जर्मनी ने दक्षिण अफ्रीका में कुछ प्रदेश प्राप्त करके अपना उपनिवेश बना लिया जिसे जर्मन दक्षिण अफ्रीका कहा जाने लगा। तत्पश्चात् जर्मनी ने पश्चिमी अफ्रीका में टोगोलैंड तथा कैमरून के प्रदेश अपने अधिकार में ले लिए। पूर्वी अफ्रीका में भी जर्मनी ने जंजीबार तथा इसके पड़ोस का बहुत बड़ा क्षेत्र प्राप्त कर लिया जो जर्मनी पूर्वी अफ्रीका कहलाने लगा।

च) इटली के उपनिवेश – इटली ने अफ्रीका में एरिट्रीया, सोमालीलैंड तथा लीबिया के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।  तुर्की से हुए एक युद्ध के पश्चात् इटली का ट्रीपोली पर 1912 ई. में अधिकार स्थापित हो गया।

साम्राज्यवाद का प्रभाव —

1. यूरोप के देशों पर प्रभाव – जिन यूरोपियन देशों में औद्योगिक क्रांति आई थी, वे सभी देश अपने-अपने देशों के कारखानों में बहुत अधिक माल बनाने लगे। इस माल को उन्होंने स्वयं उपनिवेशों में बेचकर अत्यधिक लाभ कमाना आरंभ कर दिया। इन उपनिवेशों से ही ये देश सस्ते दामों पर कच्चा माल खरीदने लगे जिससे सभी यूरोपीय देश व्यापार के कारण अधिक धनवान हो गए। अधिक उपनिवेश प्राप्त करने की इच्छा के कारण इन देशों ने अपनी-अपनी सेनाओं को अधिक शक्तिशाली बनाना आरंभ कर दिया, जिसके कारण सभी यूरोपीय देशों में आपसी द्वेष बढ़ गया और वे एक दूसरे के विरुद्ध दो गुटों में बंट गए। यूरोपीय देशों की आपसी शत्रुता के कारण ही प्रथम विश्व युद्ध 1914 ई. से 1918 ई. तक हुआ जिसके बहुत विनाशकारी परिणाम निकले।

2. एशिया पर साम्राज्यवाद के प्रभाव।

क) सकारात्मक प्रभाव:

  • साम्राज्यवादी देशों ने अपने अधीन उपनिवेशों में पश्चिमी शिक्षा लागू की जिससे इन देशों के लोगों को दूसरे देशों की राजनैतिक प्रणालियों के अध्ययन का अवसर मिला।
  • साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपतियों ने अधिक लाभ कमाने के लिए उपनिवेशों में नए उद्योग स्थापित किए जिससे इन लोगों को रोजगार प्राप्त करने के नए अवसर प्राप्त हुए।
  • साम्राज्यवादी देशों ने अपने-अपने उपनिवेशों में व्यापार बढ़ाने हेतु अधिक-से-अधिक सड़कें बनवाई तथा रेल की पटरियाँ बिछवाई जिससे इन उपनिवेशों में यातायात के साधनों का बहुत विकास हुआ।

 

ख) विनाशकारी प्रभाव –

  • साम्राज्यवादी देशों ने उद्योगों के लिए सस्ते दामों में कच्चा माल खरीदना आरंभ कर दिया और अपने देशों में निर्मित माल अधिक दामों पर बेचना आरंभ कर दिया और साथ ही उन्होंने उपनिवेशों के निजी उद्योगों में बने हुए माल को बेचने के लिए अनेक प्रतिबंध लगा दिए जिससे उपनिवेशों के उद्योग नष्ट हो गए।
  • साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों के किसानों का अधिक से अधिक शोषण किया जिससे उपनिवेशों के किसान भी निर्धन हो गए।
  • साम्राज्यवादी देशों के लोग अपने आप को सभ्य मानते थे और उपनिवेशों के लोगों को नीच समझते थे। वे इन लोगों से मेलजोल स्थापित नहीं करते थे।
  • उपनिवेशों के लोगों को उच्च पदों पर भी नहीं रखा जाता था।
  • साम्राज्यवादी देशों के ईसाई प्रचारकों ने उपनिवेश के लोगों को बलपूर्वक ईसाई बनाना आरंभ कर दिया।

3. साम्राज्यवाद का भारत पर विनाशकारी प्रभाव – यद्यपि भारत पर अंग्रेजों के अधिकार के कई अच्छे प्रभाव पड़े। उन्होंने भारत में आधुनिक न्याय प्रणाली लागू की एवं कानून का शासन स्थापित किया। अंग्रेजों ने भारत में आधुनिक पुलिस व्यवस्था को आरंभ किया। उन्होंने भारत में यातायात एवं संचार के साधनों का विकास किया। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के प्रयत्न किए। आधुनिक शिक्षा प्रणाली लागू करके भारतीयों में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न की। परन्तु इन सब के बावजूद भी साम्राज्यवाद के भारत में निम्नलिखित विनाशकारी प्रभाव पड़े

क) गाँवों की स्वावलंबी अर्थव्यवस्था का छिन्न-भिन्न होना – भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व गांव में किसानों के अतिरिक्त अन्य उद्योग करने वाले लोग भी रहते थे जैसे कुम्हार, बढ़ई, लोहार, धोबी, नाई, जुलाहे, मोची, वैद्य, तेली, कहार आदि। ये सभी लोग इकट्ठे मिलकर गाँव की सभी आवश्यकताओं को पूरा कर लेते थे। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से प्रत्येक गाँव स्वावलंबी था। राजस्व अथवा लगान की अदायगी फसलों के रूप में की जाती थी, परंतु अंग्रेजों ने भारत में लगान संबंधी नई नीतियाँ लागू कर दी। लगान अब निश्चित रकम के रूप में वसूल किया जाने लगा जिससे किसान अपनी फसलें बेचने के लिए विवश होने लगे। अंग्रेजों ने भूमि को गिरवी रखने अथवा बेचने की वस्तु बना दिया, जिससे किसानों को भूमि से बेदखल किया जा सकता था। गाँवों में बाहर से बहुत-सी निर्मित वस्तुएँ पहुँचने के कारण स्थानीय दस्तकारों के उद्योग भी नष्ट हो गए। इन सब कारणों से गाँवों की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई।

ख) भारतीय धन अथवा संपदा का निष्कासन – अंग्रेजों के भारत पर अधिकार करने के पश्चात् भारतीय धन अथवा संपदा का एक बहुत बड़ा भाग निरंतर इंग्लैंड जाता रहा। इसे आर्थिक दोहन अथवा संपदा का निष्कासन कहा जाता था। अंग्रेज भारत में अपना शासन स्थापित करने के पश्चात् भी विदेशी बने रहे और उन्होंने भारत से प्राप्त किये धन का अधिकांश भाग भारत की अपेक्षा इंग्लैंड में खर्च किया। यह धन सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को भारी वेतन तथा पेंशन के रूप में भारतीय राजकोष से दिया जाता था। एक अनुमान के अनुसार केवल 1758 ई. से 1765 ई. तक लगभग 60 लाख पौंड की संपत्ति इंग्लैंड भेजी गई। इंग्लैंड के उद्योगपति एवं पूँजीपति भी अधिक लाभ कमाने के लिए अपना अतिरिक्त धन भारत में रेलों, सड़कों, नहरों के निर्माण, चाय व कॉफी के बागों तथा कोयले की खानों में लगाते थे। इस धन का ब्याज तथा लाभ भी इंग्लैंड को जाता था।

ग ) हस्तशिल्प उद्योगों का पतन –

  • औद्योगिक क्रांति के कारण इंग्लैंड में बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हो गए। इनमें बड़ी मात्रा में उत्पादन होने लगा और यह माल सुंदर तथा सस्ता होता था। भारतीय माल महंगा होने की वजह से इनके सामने नहीं टिक सका और बहुत सारे उद्योग धंधे बंद हो गए।
  • भारतीय लघु उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुएँ जब इंग्लैंड तथा यूरोप के बाजारों में पहुँचती थी तो उन पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए जाते थे ताकि वहाँ के लोग उन्हें खरीद न सके।
  • भारतीय दस्तकारों तथा शिल्पकारों द्वारा निर्मित वस्तुओं के बड़े खरीददार भारतीय शासक तथा राजदरबार थे परंतु अंग्रेजों ने सभी राज्यो का अंत कर दिया जिससे उनके मुख्य ग्राहक समाप्त हो गए।

घ) उद्योगों का पिछड़ापन – इंग्लैंड की सरकार भारत में भारतीय उद्योगपतियों की अपेक्षा ब्रिटिश उद्योगपतियों के हितों का अधिक ध्यान रखती थी। भारत में लगाई गई बहुत-सी प्रारंभिक मिलों एवं कारखानों के मालिक भी अंग्रेज थे और भारतीय ब्रिटिश सरकार अंग्रेज उद्योगपतियों की हर संभव सहायता करती थी।

ड) निर्यात की अपेक्षा आयात को बढ़ावा देना – भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत से सूती कपड़े, रेशमी कपड़े, गरम मसाले, नील, चाय आदि का बड़ी मात्रा में निर्यात होता था। यूरोपीय बाजारों में इन वस्तुओं की बहुत अधिक मांग थी परंतु भारत में अंग्रेजों ‘आगमन के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में इस प्रकार की नीति अपनाई जिससे भारत में आने वाले ब्रिटिश माल पर नाममात्र का आयात शुल्क लगाया जाता था। वहीं इंग्लैंड में भारतीय दस्तकारों द्वारा तैयार किए गए कपड़े तथा अन्य वस्तुओं पर भी भारी शुल्क तथा प्रतिबंध लगाया जाता था ताकि यूरोप के लोग इन भारतीय वस्तुओं को न खरीद सकें। परिणामस्वरूप भारतीय कपड़े तथा अन्य वस्तुओं का निर्यात धीरे-धीरे समाप्त हो गया परंतु भारत में इंग्लैंड के उद्योगों में तैयार माल का आयात बढ़ता गया। इंग्लैंड की आयात निर्यात नीति कारण भारतीय उद्योग तथा कारखाने बंद होने लगे।

च) भारतीय कृषि एवं किसानों पर दुष्प्रभाव – भारत की ब्रिटिश सरकार ने किसानों से लगान एकत्र करने के लिए जितने भी भूमि प्रबंध लागू किये, वे सब किसानों के शोषण पर आधारित थे। किसानों की लगभग आधी उपज लगान चुकाने में लग जाती थी। कर इकट्ठा करने के नियम इतने कठोर थे कि किसानों को हर हाल में, चाहे उपज हो या न हो, कर देना पड़ता था। महाजनों से ऊंचे ब्याज पर पैसा उधार लेने और सरकार को समय पर करना देने की वजह से किसान बर्बाद हो गए।

छ ) पश्चिमी शिक्षा लागू होना – अंग्रेजों ने भारत में 1835 ई. में पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली लागू की। जिससे अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम मान लिया गया। अंग्रेज भारतीयों की ऐसी श्रेणी उत्पन्न करना चाहते थे जो अंग्रेजी भाषा की शिक्षा प्राप्त करके क्लर्कों इत्यादि छोटे पदों पर थोड़े वेतनों पर कार्य करें।

ज) ईसाई धर्म का प्रसार – भारत में पादरी बड़े उत्साह से ईसाई धर्म का प्रचार करते थे। ईसाई धर्म प्रचारक विद्यालयों, महाविद्यालयों, अस्पतालों, दफ्तरों, मंदिरों, मस्जिदों तथा जेलों आदि में जाकर ईसाई धर्म का प्रचार करते थे। इस काम के लिए उन्हें ब्रिटिश भारतीय सरकार का पूर्ण सहयोग प्राप्त था।

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