विश्व के प्रमुख दर्शन Class 10 इतिहास Chapter 3 Notes – भारत एवं विश्व HBSE Solution

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विश्व के प्रमुख दर्शन Class 10 इतिहास Chapter 3 Notes


दर्शन, सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। दर्शन के द्वारा कुछ तत्व व सिद्धांत प्रतिपादित होते हैं। दर्शन का जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। धर्म उन को क्रियान्वित करता है। सभी दर्शन की उपासना पद्धतियां अलग-अलग हैं लेकिन सभी दर्शनों का एक ही लक्ष्य है और वह है दु:खों के मूल कारण से मनुष्य को मुक्ति दिला कर उसे मोक्ष की प्राप्ति करवाना।

धर्म का अर्थ एवं लक्षण —

वैदिक दर्शन के अनुसार मनुष्य के जीवन को आध्यात्मिक व भौतिक दृष्टि से उन्नत करने के लिए चार पुरुषार्थ ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। इन पुरुषार्थों में धर्म मुख्य है। धर्म व अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। शास्त्रों में धर्म के 10 लक्षण बताए गए हैं —

  1. धृति – धैर्य
  2. क्षमा – माफ करना
  3. संयम – वासनाओं पर नियंत्रण
  4. अस्तेय – चोरी न करना
  5. शुचिता – अंदर व बाहर की पवित्रता
  6. इन्द्रिय निग्रह – इंद्रियों को वश में करना
  7. धी – बुद्धिमता का सत्य प्रयोग
  8. विद्या – ज्ञान की जिज्ञासा ( सत्य, असत्य का ज्ञान )
  9. सत्य – मन, कर्म, वचन से सत्य को धारण करना
  10. अकरोध – क्रोध न करना

पंथ – किसी व्यक्ति तथा उसके विचारों के इर्द-गिर्द विकसित एक रहस्यमई पूजा पद्धति व कर्मकांड पंथ कहलाता है।

संप्रदाय अथवा रिलीजन – किसी विशिष्ट समुदाय के अनुयायियों का हित चाहने वाला समूह संप्रदाय अथवा रिलिजन कहलाता है। जैसे:- हिंदू, इस्लाम, ईसाइयत आदि।


वैदिक दर्शन


यह विश्व के प्राचीन दर्शनों में प्रमुख है। वैदिक दर्शन भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। वैदिक दर्शन में धर्म के स्वरूप को स्वीकार कर लिया है अतः वैदिक दर्शन को लोगों ने धर्म बना लिया।

वैदिक दर्शन के मुख्य स्त्रोत – वैदिक दर्शन वेदों की प्रमाणिकता को मानता है तथा वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है इसमें वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद मुख्य हैं।

वेद – वेद संसार का प्राचीनतम, प्रमाणिक, पवित्र एवं दार्शनिक साहित्य हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार वेद शाश्वत हैं और वेद ईश्वर की वाणी हैं। वेद का अर्थ है- ‘ज्ञान’। वेद चार है—

  1. ऋग्वेद – यह सबसे प्राचीन वेद है जिसमें देवताओं के आह्वान करने के मंत्र हैं। इसमें 10 मंडल एवं 10552 मंत्र है। गायत्री मंत्र भी इसी वेद में है।
  2. यजुर्वेद – इस वेद में कर्म की प्रधानता है। इसमें 40 अध्याय एवं 1975 मंत्र हैं जिनमें अधिकतर यज्ञ के मंत्र हैं। यह दो भागों में विभाजित है शुक्ल यजुर्वेद व कृष्ण यजुर्वेद।
  3. सामवेद – यह वेद भारतीय संस्कृति का मूल है। इसमें ऋग्वेद के मंत्रों का संगीतमय आरोप है तथा देवताओं की पूजा के मंत्र शामिल है। जिनकी संख्या 1875 हैं।
  4. अथर्ववेद – यह वेद जन सामान्य से जुड़ी समस्याओं के समाधान तथा जीवन व समाज के नियमों का संकलन है। यह वेद ब्रह्म ज्ञान का उपदेश देता है व मोक्ष का उपाय भी बताता है। इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाजशास्त्र, कृषि विज्ञान, चिकित्सा विधि एवं रोगों से संबंधित ज्ञान भी शामिल है। इसमें 5987 मंत्र हैं।

ब्राह्मण ग्रंथ – वेदों के मंत्रों का अर्थ करने में सहायक हैं। इनमें उन अनुष्ठानों का विशुद्ध रूप में वर्णन किया गया है जिसमें वैदिक मंत्रों को प्रयोग किया गया है।

आरण्यक ग्रंथ – वानप्रस्थियों में संन्यासियों को आत्मतत्त्व व ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिए यह ग्रंथ ब्राह्मण ग्रंथ में उपनिषदों को जोड़ने वाली कड़ी है।

उपनिषद – यह वेदों का सार है। उपनिषद का अर्थ है गुरु के पास बैठकर शिष्य द्वारा ज्ञान प्राप्त करना। ब्रह्म, जीव जगत का ज्ञान उपनिषदों की मूल शिक्षा है।

वैदिक दर्शन की विशेषताएं :-

  • नैतिकता व सत्य पर आधारित
  • प्रकृति की प्रधानता
  • बहुदेववाद में एकेश्वरवाद की अवधारणा
  • ऋत (नियम) की अवधारणा
  • चार पुरुषार्थ की अवधारणा
  • यज्ञ एवं अनुष्ठानों की प्रधानता
  • भौतिक जीवन के प्रति उदासीनता
  • कर्म के आधार पर पूर्वजन्म के सिद्धांत की मान्यता
  • अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति
  • आत्मा की अमरता में विश्वास
  • त्रिगुण के सिद्धांत की मान्यता
  • ऋण की अवधारणा ( देव ऋण, गुरु ऋण, पितृ ऋण)
  • विश्व भ्रातृत्व की प्रेरणा
  • सहिष्णुता व धैर्य की प्राप्ति में सहायक
  • सामाजिक कुशलता का विकास
  • सरल एवं पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा

वैदिक दर्शन व्यक्तियों को लोग वह मुंह से दूर रखते हुए कर्तव्य का पालन करना सिखाता है। दूसरों की सेवा करने को पुण्य एवं दूसरे को दु:ख देने को पाप समझता है।


जैन दर्शन 


जैन दर्शन को ‘श्रमणो’ का दर्शन भी कहा जाता है। जैन दर्शन में 24 तीर्थंकर हुए हैं जिनमें सबसे पहले ऋषभदेव व अंतिम भगवान महावीर स्वामी माने गए हैं। ऋषभदेव ही जैन दर्शन के संस्थापक व प्रवर्तक माने जाते हैं।

महावीर स्वामी – महावीर स्वामी 24वें  तीर्थंकर थे। इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल के सरदार तथा माता त्रिशला लिच्छिवी राजा चेतक की बहन थी। महावीर की पत्नी का नाम यशोदा था। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। वीर स्वभाव के कारण उनका नाम महावीर पड़ा। 30 वर्ष की आयु में राजसी वैभव व सुख सुविधाएं छोड़कर ज्ञान की खोज में निकले और जंगल में एक साल वृक्ष के नीचे बैठकर एवं भोजन पानी के बिना, वर्षों तक तपस्यारत रहकर सच्चे ज्ञान की प्राप्ति की।

जैन दर्शन की उत्पत्ति – जैन उन्हें कहते हैं जो जिन के अनुयाई हो। ‘जिन’ का अर्थ है ‘जीतना’।  अर्थात इंद्रियों को जीतने वाला।

जैन दर्शन के त्रिरत्न – मोक्ष प्राप्ति संसार की मोह माया व इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना इस धर्म का एकमात्र उद्देश्य है। मोक्ष प्राप्ति के लिए महावीर स्वामी ने तीन उपाय बताएं जो त्रिरत्न कहलाए।

  1. सम्यक दर्शन – सत्य तथा तीर्थंकरों में पूरी आस्था व विश्वास रखना।
  2. सम्यक ज्ञान – संदेह रहित वास्तविक ज्ञान।
  3. सम्यक आचरण – मनुष्य अपनी इंद्रियों को वश में करके ही सत्य ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। इसीलिए इंद्रियों पर संयम करके सुख-दु:ख में समभाव रखना ही सम्यक चरित्र है।

जैन दर्शन के पांच महाव्रत – मोक्ष प्राप्ति के तीन साधनों का पालन करने के लिए जैन दर्शन में गृहस्थ लोगों को पांच ‘महाव्रत’ पालन करने को कहा गया है। वे है- अहिंसा, अमृषा, अस्तेय व अपरिग्रह। इन चारों पायों में पांचवा ब्रह्मचर्य जोड़कर इन्हें त्रिरत्न की प्राप्ति का साधन बताया है।

  1. अहिंसा – मन, कर्म, वचन से किसी के प्रति हिंसा की भावना ना रखना वास्तविक अहिंसा है।
  2. अमृषा – प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक परिस्थिति में सत्य ही बोलना चाहिए।
  3. अस्तेय – बिना अनुमति किसी दूसरे व्यक्ति की कोई वस्तु नहीं लेनी चाहिए और ना ही उसकी इच्छा करनी चाहिए।
  4. अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए
  5. ब्रह्मचर्य – मोह-वासना से दूर रहकर ज्ञान व शक्ति प्राप्त करना तथा जरूरत से ज्यादा किसी वस्तु का प्रयोग न करना तथा इंद्रियों पर संयम रखना ब्रह्मचर्य है।

दिगम्बर व श्वेताम्बर –  महावीर स्वामी 527 ई.पू. में बिहार के पावापुरी नामक स्थान पर निवारण को प्राप्त हुए। उनके बाद जैन परंपरा दो भागों में विभक्त हो गई। जिनमें एक वर्ग दिगम्बर मैं दूसरा श्वेताम्बर कहलाया। दिगम्बर साधु 10 दिशाओं को वस्त्र मानते हैं जबकि श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र पहनते हैं।

जैन दर्शन आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास रखता है। जैन दर्शन जातिवाद, छुआछूत एवं आडम्बरबाद का विरोध व नारी सम्मान का समर्थन करता है।


बौद्ध दर्शन


छठी शताब्दी ई.पू. एक महान विभूति गौतम बुद्ध का जन्म हुआ, उन्होंने रुढ़िवादीवादिता तथा सामाजिक जटिलता के विरुद्ध आवाज उठाई ओर बोद्ध दर्शन की स्थापना की।

महात्मा बुद्ध के जीवन की चार महत्वपूर्ण घटनाएं –

  1. महाभिनिष्क्रमण
  2. सम्बोधि
  3. धर्म-चक्र प्रवर्तन
  4. महापरिनिर्वाण

महात्मा बुद्ध – महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी (नेपाल) में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन शाक्य गण के मुखिया थे तथा माता का नाम महादेवी था। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। 29 वर्ष की आयु में वह राज वैभव को छोड़कर ज्ञान की खोज में निकल पड़ा। उनके जीवन में घर छोड़ने की घटना को बौद्ध साहित्य में ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहा गया है।

महात्मा बुद्ध ने महाभिनिष्क्रमण के पश्चात कई वर्षों तक सन्यासी जीवन व्यतीत किया। वे आलार कलाम तपस्वी, राजगृह के ब्राह्मण आचार्य मुद्रक एवं रामपुत्त के पास गए किंतु उनके ज्ञान की प्यास शांत नहीं हो पाई। बाद में वह अपने पांच साथियों के साथ उरुवेला के पास निरंजना नदी के तट पर तपस्या करने लगे। उनके पांचों साथी उन्हें छोड़कर चले गए। अब वह वहां पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठ गए। 7 दिन तक ध्यान करने के पश्चात वैशाख महीने की पूर्णिमा के दिन उन्हें ‘आत्मबोध’ हुआ और तभी वह बुद्ध कहलाने लगे। उस स्थान का नाम ‘बोधगया’ पड़ गया। जो बिहार राज्य में है। जीवन की इस घटना को ‘संबोधि’ कहा गया।

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया। इसे ही बौद्ध ग्रंथों में धर्म-चक्र-प्रवर्तन कहा है।

45 वर्षों तक उपदेश देने के बाद 80 वर्ष की आयु में गोरखपुर के समीप कुशीनगर नामक स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहते हैं।

गौतम बुद्ध के अनुयाई दो भागों में विभाजित तो गए थे, एक भिक्षुक और दूसरे उपासक। भिक्षुक बोद्ध दर्शन के प्रचार के लिए संयासी जीवन व्यतीत करते थे तथा उपासक गृहस्थ दर्शन में रहते हुए भी बौद्ध दर्शन को मानते थे। गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों से दु:ख से पीड़ित लोगों को मुक्त कर शांति प्राप्ति का मार्ग बताया।

चार आर्य सत्य –

  1. दु:ख – संसार में जन्म-मरण, संयोग-वियोग, लाभ-हानि सभी दु:ख ही दु:ख हैं।
  2. दु:ख का कारण – सभी प्रकार के दु:खों का कारण तृष्णा या वासना है।
  3. दु:ख निरोध – तृष्णा के निवारण से या लालसा के संयम से दु:ख का निवारण हो सकता है।
  4. दु:ख निरोध मार्ग – दु:खों पर विजय प्राप्त करने का मार्ग अष्टमार्ग है।

अष्टमार्ग – गौतम बुद्ध ने लोगों को मोक्ष प्राप्ति के लिए अष्टमार्ग पर चलने के लिए कहा।

  1. सम्यक् दृष्टि: सत्य-असत्य, पाप-पुण्य आदि में भेद करने से ही चार आर्य सत्यों में विश्वास पैदा होता है।
  2. सम्यक् संकल्प : तृष्णा से दूर रहने, मानसिक व नैतिक विकास का संकल्प लेना।
  3. सम्यक् वाणी : हमेशा सत्य और मीठी वाणी बोलना।
  4. सम्यक् कर्म : हमेशा सच्चे और अच्छे कर्म करना।
  5. सम्यक् जीविका : अपनी आजीविका के लिए पवित्र तरीके अपनाना।
  6. सम्यक् प्रयास: अपने को अच्छा बनाने का प्रयास करना तथा शरीर को अच्छे कार्य में लगाने के लिए उचित परिश्रम करना।
  7.  सम्यक् स्मृति : अपनी गलतियों को हमेशा याद रखकर विवेक और सावधानी से कर्म करने का प्रयास करना।
  8. सम्यक् समाधि : मन को एकाग्र करने के लिए ध्यान लगाना।

गौतम बुद्ध के दस नैतिक आचरण —

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. अस्तेय
  4. अपरिग्रह
  5. ब्रह्मचर्य
  6. सुगंधित पदार्थों का त्याग
  7. असमय भोजन न करना
  8. नृत्य व गान का त्याग
  9. कोमल शैय्या का त्याग करना
  10. कामिनी कंचन का त्याग करना

हीनयान-महायान – द्वितीय बौद्ध संगीति के बाद बौद्ध दर्शन दो भागों में विभाजित हो गया था। हीनयान एवं महायान। हीनयान गौतम बुद्ध के द्वारा बनाए गए नियमों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे जबकि महायान समय के साथ गौतम बुद्ध के बनाए नियमों में बदलाव चाहते थे।

विश्व में बौद्ध दर्शन का प्रचार – सम्राट अशोक, कनिष्क, हर्ष ने बौद्ध दर्शन के प्रचार में अहम योगदान निभाया। बौद्ध दर्शन के प्रचार के लिए अशोक ने 84000 स्तूप बनवाएं। यह धर्म आधुनिक समय में भारत, चीन, जापान, थाईलैंड, श्रीलंका, अफगानिस्तान, सिंगापुर तक फैला हुआ है। समय के साथ-साथ भारत से यह धर्म लगभग लुप्त ही हो गया है जिसके कारण निम्नलिखित हैं।

  • आंतरिक कारण – बौद्ध दर्शन का मुकाबला करने के लिए हिंदू दर्शन के विद्वानों ने कर्मकांड के स्थान पर वेदों में बताए गए ज्ञान मार्ग व भक्ति मार्ग का प्रचार किया जिससे बौद्ध दर्शन का तत्व ज्ञान फीका पड़ने लगा।
  • बाह्य कारण – मध्य एशिया से आए हुण, मंगोल, मोहम्मद बिन कासिम, मोहम्मद गजनवी, मोहम्मद गौरी के आक्रमणों से एवं लूटपाट से बौद्ध दर्शन का पतन हो गया।

बौद्ध दर्शन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति करना था। महात्मा बुध के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अष्टमार्ग पर चलकर दु:खों से मुक्ति पा सकता था।


पारसी दर्शन


पारसी दर्शन का जन्म फारस ( ईरान )में हुआ था। आर्यों का ईरानी शासक पैगंबर जरथुस्त्र इसके संस्थापक माने जाते हैं। इनके मुख्य देवता सूर्य, पृथ्वी, चंद्रमा आदि थे।  सूर्यन का सबसे बड़ा देवता था।

जरथुस्त्र का जन्म पश्चिमी ईरान के अजरबेजान प्रांत में हुआ था उनके पिता का नाम पोमशष्पा और माता का नाम दुधधोवा था। 30 वर्ष की आयु में सबलान पर्वत पर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।

पारसी दर्शन के अनुसार शरीर नाशवान है और आत्मा अमर है। मनुष्य को अपने कर्म के अनुसार सत्य और असत्य का पालन करने से स्वर्ग व नर्क की प्राप्ति होती हैं। पारसी दर्शन के अनुसार संसार में दैवी एवं दानवी दोनों प्रकार की शक्तियां हैं। दैवी शक्ति के प्रतीक ‘अहुरमज्दा’ हैं। दानवीर शक्तियों का प्रतीक ‘अहरिमन’ है। उनके दैनिक जीवन के अनुष्ठानों व क्रम कांडों में अग्नि देवताओं के प्रमुख देवता हैं इसीलिए पारसियों को अग्नि पूजक भी कहा जाता है।

पारसियों के अनुसार शरीर के दो भाग हैं एक शारीरिक और दूसरा आध्यात्मिक। मरने के बाद शरीर तो नष्ट हो जाता है किंतु आध्यात्मिक भाग जीवित रहता है।

पारसियों के शव की अंतिम संस्कार विधि भी अलग है। वह शवों को ऊंची मीनार पर खुला छोड़ देते हैं। जिसे दखवा या टावर ऑफ साइलैंस कहते हैं। जहां गिद्ध उसे नोच नोच कर खा जाते हैं। बाद में शव की अस्थियां इकट्ठी करके दफना दी जाती है।

जरथुस्त्र के मृत्यु के बाद उनकी शिक्षाएं धीरे-धीरे बैक्ट्रिया और फारस में फैली। भारत में पारसी पालदार जहाज लेकर आए थे और गुजरात में काठियावाड़ के सिरे पर मछुआरों के दिऊ गांव पहुंचे। तीन पारसियों दादा भाई नौरोजी, फिरोज शाह मेहता, जमशेदजी टाटा व वर्तमान में रतन टाटा का भारत की राजनीति एवं उद्योग व्यवसाय में विशेष योगदान रहा।

जरथुस्त्र चाहते हैं कि मानव इस विश्व का पूरा आनंद उठाए और खुश रहें। वह जो भी करें बस एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि सदाचार के मार्ग से कभी विचलित न हो। पारसियों को भौतिक सुख सुविधाओं से संपन्न जीवन की मनाही नहीं है लेकिन यह भी कहा गया है कि समाज से तुम जितना लेते हो उससे अधिक देना चाहिए।


यहूदी दर्शन


यहूदी दर्शन का आरंभ पैगंबर हजरत अब्राहम से माना जाता है। अब्राहम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम मूसा का है। मूसा को ही पहले से चली आ रही परंपरा को स्थापित करने के कारण यहूदी दर्शन का संस्थापक माना जाता है।

यहूदी दर्शन की उत्पत्ति – अब्राहम को यहूदी ईसाई व मुसलमान तीनों दर्शनों के लोग अपना पितामह मानते हैं। अब्राहम के दो बेटे हजरत इसहाक वह हजरत इस्माइल थे। अब्राहम के पोते का नाम याकूब था। याकूब के बेटे का नाम यहूदा था और उसी के नाम पर उनके वंशज यहूदी कहलाए तथा उनका दर्शन यहूदी दर्शन कहलाया।

मूसा मिस्र के फराओ के जमाने में हुए थे। उसकी मां ने उसे नील नदी में बहा दिया था। फिर उसे नदी से निकालकर फराओ की पत्नी ने पाला था। बड़े होकर वह मिस्र के राजकुमार बने तथा बाद में उसने यहूदियों को जागृत कर एकजुट किया।

यहूदी मान्यताओं के अनुसार ईश्वर एक है। उसके अवतार या स्वरूप नहीं है। लेकिन वह दूत से अपने संदेश भेजता है। यहूदी ग्रंथ तनक इब्रानी भाषा में लिखा गया है जो ईसाइयों की बाइबिल का पूर्वार्द्ध है। यहूदी अपने ईश्वर को यहोवा कहते हैं। यहूदियों के पुरोहित को रबी तथा पूजा स्थल को सिनागौग कहा जाता है।

यहूदी दर्शन की शिक्षाएं –

  • मैं स्वामी हूँ, तेरा ईश्वर, तुझे दासता से मुक्त करने वाला है।
  • मेरे अतिरिक्त तू किसी दूसरे ईश्वर को नहीं मानेगा।
  • तू अपने स्वामी व अपने प्रभु का नाम व्यर्थ ही नहीं लेगा।
  • छह दिन तू काम करेगा तथा सातवें दिन विश्राम करेगा, यह प्रभु का दिन है।
  • अपने माता-पिता का सम्मान कर उन्हें सम्मान दें।
  • तू हत्या नहीं करेगा।
  • तू चोरी नहीं करेगा।
  • तू अपने पड़ोसी के खिलाफ झूठी गवाही नहीं देगा।
  • तू अपने पड़ोसी के मकान, पड़ोसी की पत्नी, नौकर, नौकरानी तथा उसकी सम्पत्ति पर बुरी नज़र नहीं रखेगा।

यहूदी दर्शन के अनुसार नैतिकता ही मानव जाति की पहचान है। इनके अनुसार मनुष्य के पास ईश्वर के कानून के आज्ञापालन व आज्ञा का उल्लंघन दो विकल्प हैं।

यरूशलम का महत्व – यरूशलम इजराइल देश की विवादित राजधानी है। इस पर यहूदी, इस्लाम और ईसाई तीनों दर्शनों के अनुयायी दावा करते हैं क्योंकि यहां यहूदियों का पवित्र सुलेमानी मंदिर हुआ करता था। यह शहर ईसा-मसीह व हजरत मोहम्मद की कर्म भूमि भी रहा है। लेकिन वास्तव में यरूशलम प्राचीन यहूदी राज्य का केंद्र और राजधानी रहा है। यहीं पर मूसा ने यहूदियों का धार्मिक शिक्षा दी थी।

भारत में यहूदी – भारत में यहूदियों ने केरल के मालावार तट पर प्रवेश किया था। अतिथि-प्रिय हिन्दू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ को उपाधि और जागीर प्रदान की थी। यहूदी कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों में भी बसे हैं।


कन्फ्यूशियस दर्शन


जब भारत में भगवान महावीर व महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार हो रहा था, उसी समय चीन में भी एक महान समाज सुधारक का जन्म हुआ, जिसका नाम कन्फ्यूशियस था। उस समय चीन में झोऊ राजवंश की शक्ति कम होने के कारण वहाँ अनेक राज्यों का उदय हो रहा था तथा वे आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। इस समय चीन की जनता बहुत कष्टदायक जीवन यापन कर रही थी। ऐसे समय में चीन वासियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए कन्फ्यूशियस का जन्म हुआ।

1. कन्फ्यूशियस का जीवन : कन्फ्यूशियस का जन्म ईसा मसीह के जन्म से करीब 550 वर्ष पहले चीन के शानदाँग प्रदेश में हुआ था। बचपन में ही इसके पिता की मृत्यु हो गयी। 17 वर्ष की आयु में ही उसने सरकारी नौकरी की तथा कुछ वर्षों बाद सरकारी नौकरी छोड़कर फिर शिक्षण कार्य में लग गये। 53 वर्ष की आयु में एक शहर के शासनकर्त्ता तथा बाद में मंत्री नियुक्त हुए। मंत्री बनने पर उसने दण्ड के बदले मनुष्य के चरित्र सुधार पर बल दिया। वे अपने शिष्यों को विनयी, परोपकारी, गुणी व चरित्रवान बनने की प्रेरणा देते थे। वे लोगों को सत्य, प्रेम, न्याय व बड़ों का आदर-सम्मान करने का संदेश देते थे।

2. कन्फ्यूशियस की शिक्षाएँ : कन्फ्यूशियस एक समाज सुधारक थे। उन्होंने ईश्वर के बारे में कोई उपदेश नहीं दिया।

कन्फ्यूशियस मत के अनुसार शासक का अधिकार आज्ञा देना तथा शासित का कर्तव्य उस आज्ञा का पालन करना है। उसी प्रकार पिता, पति व बड़े भाई का अधिकार आदेश देना है और पुत्र, पत्नी व छोटे भाई का कर्तव्य आदेशों का पालन करना है। परन्तु साथ ही आवश्यक है कि आदेश देने वाले का शासन औचित्य, नीति और न्याय पर आधारित हो ।

संसार के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग दर्शनों का विकास हुआ। सभी ने मानव जाति को बुरे कार्यों से बचने और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। इन दर्शनों ने समाज को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया। विश्व के सभी दर्शनों का अन्तिम लक्ष्य मानव जीवन को आध्यात्मिक एवं श्रेष्ठ बनाना है। चरित्र निर्माण के लिये सदगुणों की आवश्यकता पर बल देते हैं। मानव सेवा, परोपकार, अहिंसा, प्रेम आदि भावनाएँ सभी दर्शनों में पाई जाती हैं।


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